Book Title: Dashvaikalika Uttaradhyayana
Author(s): Mangilalmuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 9
________________ प्रस्तावना जैन आगम चार भागो मे विभक्त है-१ अग २ उपाग ३ मूल और ४ छेद। अग ११, उपाग १२, मूल ४ और छेद ४ हैं। प्रस्तुत कृति 'मूल' विभाग से सवधित है, अत इस विषय मे कुछ ऊहापोह करना प्रसगप्राहा है।' - 'मूल विभाग बहुत प्राचीन नही है। “सभव है, यह विभाग विक्रम की ग्यारहवी शताब्दी के बाद का है । आगमो मे केवल अंगप्रविष्ट और अगबाह्ययह विभाग प्रोहा होता है। जब आगम-पुरुष की कल्पना हुई तब यह विभाग हुआ और मूल-स्थानीय सूत्रो की समायोजना की गई। प्राचीन श्रुत-पुरुष की रेखाकृति मे चरण (मूल) स्थानीय दो आगम थे-आचाराग और सूत्रकृताग । अर्वाचीन श्रुत-पुरुष की रेखाकृति मे इनमे परिवर्तन हुआ। इन दो आगमो के स्थान पर दशर्वकालिक और उत्तराध्ययन-ये दो आगम आ गए। कितने और कौन-कौन से आगम 'मूल' सज्ञा के अन्तर्गत आते है, इसमे सभी विद्वान एकमत नही हैं। किन्तु अनुयोगद्वार, नदी, उत्तराध्ययन और दशवैकालिक 'मूल' सूत्र हैं, इसे अधिक मान्यता प्राप्त है। . यहां यह प्रश्न होना स्वाभाविक है कि इन्हें 'मूल' सज्ञा क्यो दी गई ? इस प्रश्न को समाहित करने के लिए अनेक विद्वानो ने अनेक आनुमानिक परिभाषाएँ प्रस्तुत की हैं । आचार्य श्री तुलसी ने इसकी मीमांसा करते हुए लिखा है-'दशवकालिक और उत्तराध्ययन मुनि जीवन की चर्या के प्रारम्भ मे मूलभूत सहायकं बनते हैं तथा आगमों का अध्ययन इन्ही के पठन से प्रारम्भ होता है, इसीलिए इन्हे 'मूल' सूत्र की मान्यता मिली, ऐसा प्रतीत होता है। दूसरी बात है-"इनमे मुनि के मूल गुणों-महाव्रत, समिति आदि का निरूपण है, 'इस दृष्टि से इन्हे 'मूल' सूत्र की सज्ञा दी गई है।" दशवकालिक - - - - यह निर्वृहण कृति है। आचार्य शय्यभव श्रुतकेवली थे। उन्होंने अपने पुत्र शिष्य मनक के लिए, विभिन्न पूर्वो से, इसका निर्वृहण किया। वीर निर्वाण की प्रथम शताब्दी मे चपा नगरी मे यह कार्य सपन्न हुआ, ऐसा माना जाता १ देसवेआलिय तह उत्तरज्झयणाणि, भूमिका पृ० ३ ।

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