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[ १५ ] वह अगर नम्र-भाव से सूचित न करूँ तो मैं साहित्य का, खास कर हिन्दी साहित्य का उपासक ही कैसे कहला सकता हूँ?
जब मैं अंग्रेजी के अत्यल्प परिचय के द्वारा भी मेक्समूलर, थीबो, गार्वे, जेकोबी, विन्तर्निज, शेरबात्सकी आदि की तपस्या को अल्पांश में भी जान सका और समान विषय के नवीनतम हिन्दी लेखकों की उन मनीषियों की साधना के साथ तुलना की तो मुझे लगा कि अगर मेरी उम्र व शक्ति होती या पहले ही से इस दिशा में मुझे कुछ प्रयत्न करने का सूझता तो अवश्य ही मैं अपने विषय में कुछ और अधिक मौलिकता ला सकता। पर मैं थोडा भी निराश नहीं हूँ। मैं व्यक्तिमात्र में कार्य की इतिश्री माननेवाला नहीं। व्यक्ति तो समष्टि का एक अंग है। उसका सोचा-विचारा और किया काम अगर सत्संकल्प-मूलक है तो वह समष्टि के और नई पीढ़ी के द्वारा सिद्ध हुए बिना रह ही नहीं सकता।
भारत का भाग्य बहुत आशापूर्ण है। जो भारत गान्धीजी, विनोबाजी और नेहरू को पैदाकर सत्य, अहिंसा की सच्ची प्रतिष्ठा स्थापित कर सकता है वह अवश्य ही अपनी निर्बलताओं को झाडझूड़ कर फेंक देगा। मैं आशा करूँगा कि श्राप मेरे इस कथन को अतिवादी न समझें। ___ मैं राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा का आभारी हूँ जिसने एक ऐसे व्यक्ति को. जिसने कभी अपनी कृतियों को पुरस्कृत होने की स्वप्न में भी आशा न की थी. कोने में पड़ी कृतियों को ढूंढ निकाला। 'महात्मा गान्धी पुस्कार' की योजना इसलिए सराहनीय है कि उससे अहिन्दीभाषी होनहार लेखकों को उजतेन मिलता है । मुझ जैसा व्यक्ति तो शायद बाहरी उत्तेजन के सिवाय भी भीतरी प्रेरणावश बिना कुछ-न-कुछ लिखे शान्त रह ही नहीं सकता, पर नई पीढी का प्रश्न निराला है । अवश्य ही इस पुरस्कार से वह पीढी प्रभावित होगी।'
१. राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के जयपुर अधिवेशन में 'महात्मागांधी पुरस्कार' की प्राप्ति के अवसर पर ता० १८-१०-५६ को दिया गया भाषण-सं०
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