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चतुर्थस्तुतिनिर्णय भाग-१ लीयांभी क्रिया उद्धार हो शकता है, और चौथी पेढीसें लेकर उपरांत जो शिथिलाचारी क्रिया उद्धार करे तो अवश्यमेव चारित्र उपसंपदा अर्थात् दीक्षा लेकेही क्रिया उद्धार करे अन्यथा नहीं।
अथ जेकर प्रमोदविजयजीके गुरुभी संयमी होते तब तो रत्नलविजयजी विना दीक्षाके लीयांभी क्रिया उद्धार करते तोभी यथार्थ होता, परंतु रत्नविजयजीकी गुरुपरंपरा तो बहु पेढीयोंसे संयम रहित थी। इस वास्ते जेकर रत्नविजयजी आत्महितार्थी होवे तो, इनकों पक्षपात छोडके अवश्यमेव किसी संयमी गुरु समीपे दीक्षा लेके क्रिया उद्धार करणा चाहिये, क्योंके धनविजयजीने अपनी बनाइ पूजामें जो गुर्वावली लिखी है सो ऐसी है १ देवसूरि, २ प्रभसूरि, ३ रत्नसूरि, ४ क्षमासूरि, ५ देवेंद्रसूरि, ६ कल्याणसूरि, ७ प्रमोद, अरु ८ विजयराजेंद्रसूरि. इनकी तीसरी चौथी पेढीवाले तो संयमी नही थे । इस वास्ते रत्नविजयजीकों नवीन गुरुके पाससें संयम लेके क्रिया उद्धार करना चाहियें जेकर पूर्वोक्त रीतीसें क्रिया उद्धार न करेंगे तो जैनमतके शास्त्रोंकी श्रद्धावाले इनकों जैनमतके साधु क्योंकर मानेंगे?
(१०) इत्यादि रत्नविजयजी अरु धनविजयजीकों मिथ्यात्वरुप कादवमेंसें निकालके सम्यक्त्वरुप शुद्ध मार्ग पर चढानेमें हितकारक, ऐसा करुणाजनक उपदेश श्रीमन्महाराज श्रीआत्मारामजीके मुखसें सुनके हम सब श्रावकमंडल बहोत आनंदित भये, उसी बखत हम निश्चय कर रखा के जब महाराज साहेब चार स्तुतिके निर्णयका ग्रंथ बनाकर हमकों देवेगें, तब हम सब श्रावकोंकों अरु विहार करणेवालें साधुयोंकों जानने वास्ते ये ग्रंथकों छपवायकर प्रसिद्ध करेगें तब पूर्वोक्त रत्नविजयजीके हितार्थक सूचनाभी येही ग्रंथके प्रस्तावनामें लिख देवेगें, जिस्सें रत्नविजयजीभी यह बातळू जानकर अपक्षपाति होके आपही अपनी भूलका पश्चात्ताप करके शुद्ध गुरुके
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