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प्रणुत
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प्रतापनं
प्रणुत (भू०क०कृ०) [प्र+नु+क्त] ०श्लाघा किया गया।
हर्षव्यक्त किया गया।
प्रशंसा की गई। प्रणुत्त (भू०क०कृ०) [प्र+नुद्+क्त] ०भगाया हुआ, खदेड़ा हुआ।
दूर किया गया। प्रणुन (भू०क०कृ०) [प्रद+नुद+क्त] नत्वम्। भगाया गया,
गतिशील किया गया।
०कांपता हुआ। प्रणेतृ (पुं०) [प्र+नी+तृच्] नेता, नायक।
निर्माता, स्रष्टा, व्याख्याता, अध्यापक। प्रणेय (वि०) [प्र+नी+य] नेतृत्व करने योग्य, शिक्षा योग,
ज्ञातत्व, वर्णन करने योग्य। (वीरो० २०/१९) विनीत, विनम्र, आज्ञाकारी। ०कार्यान्वित किए जाने योग्य।
स्थिर किए जाने योग्य। प्रणोदः (पुं०) [प्रानुद+घञ्] ०हांकना, निर्देश देना। प्रतत (भू०क०कृ०) [प्र+तन्+क्त] ०आच्छादित किया गया,
ढका गया, प्रवारिता प्रसारित, फैलाया गया, पसारा हुआ। बिछाया गया। प्रकाशमान्। केशपूरक कोमलकुटिलं चन्द्रमसः प्रततं
व्रज रुचिरात्। (सुद० १००) प्रततिः (स्त्री०) [प्र+तन्+क्तिन्] ०प्रसार, विस्तार, फैलाव।
०लता। प्रतन् (सक०) [प्र+तन्] फैलाना, प्रकाशित करना। (वीरो०७/८) प्रतन (वि०) [प्र+तन्+अच्] ०पुराना, प्राचीन। प्रतनु (वि०) [प्रकृष्टः तनुः] ०पतला शरीर, क्षीणकाय,
कृशदेह। ०सूक्ष्म, सुकुमार। ०अत्यल्प, सीमित।
नगण्य, मामूली, थोड़ा। प्रतनुकर्मा (स्त्री०) अतिशय हीनता को प्राप्त होना। प्रकृति,
प्रदेश, स्थित और अनुभाग से कर्म का अतिशय हीनता
को प्राप्त होना। प्रतपनं (नपुं०) [प्र+तप्+ल्युट्] गरम, उष्ण, तेज। ___ज्वाला, अग्नि, जलना। प्रतप्त (भूक०कृ०) [प्र+तप्+क्त] ०गर्म, उष्ण।
०संतप्त हुआ, तपाया हुआ। ०पीड़ित, व्याकुल, दु:खित।
प्रतर् (सक०) [प्र+त्] पार जाना। लज्जासागर प्रतरेत तरीतुं
शक्नुयादित्यर्थः प्रतरंति (मुनि० ३४) (वीरो० ५/२१) प्रतरः (पुं०) [प्र+तृ+अप्] ०पार जाना, पार करना।
मेघ पटल का विघटन/भेद। सूचि रूप श्रेणि, एक एक आकाश प्रदेशात्मक पंक्ति का वर्ग।
०प्रतरोऽभ्रपटलादीनाम् (स०सि० ५/२४) प्रतरगतकेवलिक्षेत्रं (नपुं०) समुघातगत केवली का क्षेत्र। प्रतरभेदः (पुं०) एक प्रकार का घास भेद।
०मेयपटल, बांस, बेंत, नटया केला का भेद। प्रतरलोक (पुं०) एक प्रमाण विशेष, जग श्रेणी को दूसरी
जगश्रेणी से गुणित करना। प्रतरसमुदायः (पुं०) सम्पूर्ण लोक को व्याप्त करने वाला
क्षेत्र, केवली के आत्मप्रदेश वातवलयों के द्वारा रोके गए
क्षेत्र को छोड़कर जो शेष सम्पूर्ण लोक। प्रतरांगुलं (नपुं०) एक प्रमाण विशेष, सूच्यंगुल को दूसरे
सूच्यंगुल से गुणित करना। प्रतर्कः (पुं०) [प्र+त+अप्] ०अपमान, कल्पना, अटकल।
विचार विमर्श। प्रत (सक०) [प्र+त] डराना, कंपाना। (जयो० २/१४०) प्रतलं (नपुं०) [प्रकृष्टं तलम्] निम्न लोक का भाग, नीचे का
हिस्सा। प्रतस्थ (वि०) प्रस्थान करना। (समु० ३/१६) प्रताडित (वि०) समाहत, दु:खी करना। (वीरो०९/३६) प्रतानः (पुं०) [प्र+तन्+घञ्] ०अंकुर, तन्तु।
०लता, नीचे की ओर फैलने वाली लता। शाखा-प्रशाखा, शाखा, संविभाग। धानुर्वात रोग।
० मिरगी रोग। प्रतानिन् (वि०) [प्रतान+इनि] फैलाने वाला, अंकुर, तन्तु वाला। प्रतानी (स्त्री०) प्रतापवान्, प्रतापशाली, प्रभावयुक्त।
(दयो०१/११) प्रतापः (पुं०) [प्र+तप्+घञ्] गर्मी, उष्णता, तेज।
दीप्ति, दाहकता, उज्ज्वलता। (दयो० ३५)
०ताप, पराक्रम, बल, शक्ति, शौर्य। प्रतापनं (नपुं०) [प्र+तप्+णिच्+ल्युट्] ०तपाना, जलाना, गर्माना। सताना, दण्ड देना।
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