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भृतिभुज्
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भेदविज्ञानं
भृतिभुज् (पुं०) सेवक, नौकर, अनुचर। भृत्य (वि.) [भृ+क्यप्+तक च] पालन-पोषण किए जाने
योग। भृत्यः (पुं०) कार्य पात्र। (जयो०१० २/९७) नौकर, सेवक।
(सुद० ३/४)
०दास, अनुघर, आश्रित व्यक्ति। भृत्यवात्सल्यं (नपुं०) सेवक के प्रति करुणा। भृत्यवृत्तिः (स्त्री०) आजीविका, नौकरी पेशा। भृत्रिम (वि०) [भृ+त्रिमप्] पाला पोसा गया, परवरिश किया
गया। भृमि (स्त्री०) भंवर, जलावर्त। भृश् (अक०) नीचे गिरना, पतित होना। भृश (वि०) [भृश्+क] ०शक्तिशाली, बलिष्ट।
गहन, अत्यधिक। भृशं (अव्य०) अत्यन्त, गइराई के साथ, प्रगाढ़ता के साथ।
०बार-बार। (जयो० ९/५५) ०अत्यन्त, बहुत। (सुद० १/१७)
०प्रायः, अपेक्षाकृत। भृशकोपन (वि०) अत्यंत क्रोधी। भृशदुःखित (वि०) अत्यधिक पीड़ित। भृशपूत (वि०) अत्यंत पवित्र। भृत संहृष्ट (वि०) अत्यंत प्रसन्न। भृष्ट (भू०क०कृ०) [भृश्+क्त] ०सूखा हुआ, शुष्क। (दयो०८)
०पतित, गिरा हुआ। (जयो० १८/६०)
०तला हुआ, भुना हुआ। (जयो० १५/६७) भृष्टतन्दुलं (नपुं०) भुने हुए चावल, लाजा। (जयो०वृ०१५/६७) भृष्टयवाः (पुं०/बहु०व०) भुने हुए जौ। भृष्टाध्वरः (पुं०) भृष्टामार्ग, निम्न मार्ग। (जयो० १८/६०)
०ऊबड़-खाबड़ पथ। भृष्टिः (स्त्री०) तलना, भूनना, सेंकना। भेकः (पुं०) [भी+कन्] मेंढक, दुर्दुर। (वीरो०४/१७)
बादल, मेघ। भेकगतिः (स्त्री०) मेंढक की चाल। (जयो० ५/१०३) भेकभुज् (पुं०) सर्प, सांप। भेकरवः (पुं०) मेंढक का टर-टर टर्राना। भेकशब्दः (पुं०) मेंढक की टर-टर। भेडः (पुं०) [भी+ड] मेंढा, भेड़। भेदः (पुं०) [भिद्+घञ्] ०भेदना, टूटना, भिन्न करना।
विभाजन करना, भाग करना। ०आघात करना, फाड़ना। न्टुकड़े करना, खण्ड-खण्ड करना।
परिवर्तन, विकार। अंतर-दिवा-निशोर्यत्र न जातु भेदः। (वीरो० १४/५२) विकल्प। (सम्य० ५) ०भंग, विदारण, अंतर। (जयो० १/३७) छिद्र, गर्त, विवर। विलक्षण। (जयो० १/१५) चोट, घाव, क्षति। प्रकार। भिन्न-भिन्न, दृग्ज्ञानवृत्तेषु न वस्तुभेदः। (सम्य० १२४) पृथक्-पृथक्, अलग-अलग। (सम्य० १०५)
फूट, असहमति। भेदक (वि०) भेदने वाला। भेदकर (वि०) भेद करने वाला, फूट डालने वाला, भिन्न-भिन्न
करने वाला। भेददर्शिन् (वि०) भेद दर्शाने वाला, भिन्नता प्रदर्शित करने
वाला। भेदनं (नपुं०) छिन्न करना, तोड़ना। भेद प्रत्यय (वि०) भेद युक्त। भेदभावः (पुं०) पृथक् भाव, भिन्न-भिन्न अभिप्राय। भेदाभेदात्मक (वि०) भेद अभेद स्व रूपात्मक। (जयो०
२६/७८) भेदनयं (नपुं०) नय के भेद। (जयो० २६/९२) भेदनय की
अपेक्षा चेतन-अचेतन। भेद विचार, भेद-विज्ञान। भेदविज्ञानं (नपुं०) शुद्धोपयोग का नाम। स्वरूपाचरणं भेदविज्ञानं
ज्ञानचेतना। शुद्धोपयोगनामानि कथितानि जिनागमे।। (सम्य० १४३) 'भेदस्य विज्ञानं ऐसा षष्ठी तत्पुरुष समास किया जाय तो एकक्षेत्रावगाह होकर भी शरीर और आत्मा में जो परस्पर भेद है, उसका ज्ञान यानि देह और जीव में परस्पर एक बन्धानरूप संयोग सम्बंध है, फिर भी ये दोनों एक ही नहीं हो गये हैं, अपितु अपने अपने लक्षण को लिए हुए, भिन्न-भिन्न है। रूप, रस, गन्ध और स्पर्शात्मक पुद्गल परमाणुओं के पिण्डस्वरूप तो यह शरीर है, किन्तु उसके साथ उसमें चेतनत्व को लिए हुए स्फुट रूप के भिन्न प्रतिभाषित होने वाला आत्मतत्त्व है। इस प्रकार जानना और मानना भेद विज्ञान है। 'भेदेन भेदाद वा यद् विज्ञानं तद् भेदविज्ञानम्।' इस व्युत्पत्ति से शुद्धात्म का अनुभव होना भेदविज्ञान है।
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