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बहल:
०प्रचुर अत्यधिक बहुत भारी, तीव्रतर ।
० महान् बड़ा।
० सघन, दृढ़, प्रबल, तीव्र । ० कठोर, शक्तिशाली।
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बहल (पुं०) ईख, गन्ना । बहला ( स्त्री०) बड़ी इलायची।
यहि (वि०) बाहर (जयो० २ / ३५) बहिर (नपुं०) बाह्य शरीर । बहिरङ्गच्छेदः (पुं०) बाह्य अंग का छेद, दूसरे के प्राणों का
विघात - परप्राण व्यपरोपो बहिरङ्गच्छेदः (प्रव०टी० ३/१७) बहिरङ्गणं (नपुं०) अरण्य, जंगल (दयो० १४ ) बहिरङ्गधर्मध्यानं (नपुं०) अनुकूल उत्तम आचरण । बहिरात्मान् (पुं०) बहिरात्मा वह आत्मा जो कि सिद्धि पाना
तो दूर अपितु उसे याद तक नहीं करता, बल्कि उसके विरुद्ध रास्ते पर है (हि०सं० ३) (समु० ८ / २१) 'देहं वदेत्स्वं वहिरात्मनामा' (सुद० १३३) ० विभाव परणति को आत्मरूप मानना ।
० जिसकी बुद्धि बाह्य शरीर पर केन्द्रित होती है। ‘बहिरात्माऽऽत्वविभ्रान्तिः शरीरे मुग्धचेतसः' (जैन०ल०
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बहिस् (अव्य० ) [ वह इसुन्] में से बाहर की ओर से, बहिर्गत से ।
बहिर्गत (वि०) बाहर की ओर गई हुई। (दयो० २६ ) बहिद्वारं (नपुं०) बाह्य द्वल (दयो० ७) बहिर्गतवस्तु (नपुं०) बाह्य क्षेत्र में गई हुई वस्तु । (समु० ७ / ९ ) बहिगंम (वि०) बाहर की ओर जाना।
बहिर्धर (वि०) बाहर के क्षेत्र में धारण करने वाला।
बहिर्देश (वि०) बाहरी स्थान।
बहिर्भवत्व (वि०) बाह्य भाव को उत्पन्न होने वाला। (जयो०
१/२४)
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बहिर्मल (वि०) बाह्य मल ।
बहिर्योग (पुं०) बाहरी क्रिया के योग वाला। बहिर्व्याप्तिः (स्त्री०) साध्य-साधन के अविनाभाव का दर्शन । बहि: पुद्गलक्षेप (पुं०) मर्यादित सीमा से बाहर कंकरादि का फेंकना।
बहिः शम्बुका (स्त्री०) गोचर भूमि ।
वहिश्चित (पुं०) बाह्यचित्त (मुनि० २३ ) बहिष्कार : (पुं०) अलग करना, निकालना। (वीरो० ११ / ३८)
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बहुज्ञानं
बहिष्कृ (पुं०) निकालना, बाहर करना। (वीरो० २/१८) अपि कुर्याद् बहिष्कारं मत्सरादेरिहात्मनः (वीरो० ११ / ३८) बहिष्कृत देखो ऊपर।
बहिस्थितः (स्त्री०) बाह्यक्षेत्र में स्थित (वीरो० २/११) बाहिर अवस्थित । शिखावलीढाभ्रतयाऽप्यटूटा वहि: स्थिता नूतमधान्यकूटा। (वीरो० २ / ११)
बहु (वि०) ०अधिक, प्रचुर अत्यधिक
।
० प्रबल, व्यापक (सुद० १/५, सुद० ११३)
० अनेक, असंख्य, अनल्प (जयो० १८/१७)
० समृद्ध, भरा हुआ, परिपूर्ण । बृहद् विशाल।
० अनुपम, अतिशय (जयो०वृ० ६ / १०९)
बहु-शब्द संख्या की प्रचुरता का वाचक है बहुशब्दोहि संख्यावाची वैपुल्यवाची च । (धव० ९ / १४९)
बहु अवग्रह: (पुं०) बहुत पदार्थों का एक बार ग्रहण करना। बहुकर (वि०) अधिक क्रियाशीलता । बहुकल्प (वि० ) अनेक प्रकार के कल्पतरु | बहुकल्पपादपः (पुं० ) अनेक प्रकार के कल्पवृक्ष, नानाविध
कल्पतरु |
बहुकालं (अव्य०) बहुत देर तक बहुत समय तक । बहुकालभाव: (पुं०) अनेक प्रकार के समय से युक्त भाव । बहुकालीन (वि०) पुराना, पुरातन, प्राचीनतम | बहुकूर्च : (पुं०) नारिकेल तरु
बहुकृत (वि०) अनेक प्रकार से किया गया। (चीरो० १२/४०) बहुगंधा (स्त्री०) चंपकलता, यूथिका लता । बहुगुणरत्न (स्त्री०) बहुत गुण रूपी रत्न । बहवो ये गुणा एव
रत्नानि यस्य तस्माद् राज्ञ एव । बहुगुणान्यनल्परूपाणि रत्नानि मुक्तादीनि यस्मिन् (जयो०वृ० ६/६३) बहुगम्या (वि०) अनेक जनापेक्षित (जयो० ३/६०) अनेक लोगों द्वारा अभिलषणीय ।
बहुजन्तुक (वि०) बहु जीव वाले, बड़, पीपल, गूलर, अंजीर पिलस्तादि बहुबीजक फल बहुत जीव वाले हैं। (सुद०
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बहुजल्प (वि०) मुखरी, वाचाल
०बहुत बोलने वाला।
बहुज्ञ (वि०) ०अधिक जानकारी रखने वाला, ०सुविज्ञ, ० विशेषज्ञ, ० ज्ञानी ।
बहुज्ञानं (वि०) अधिक ज्ञान ।
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