Book Title: Bharat ka Bhavishya
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Osho Rajnish

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Page 16
________________ भारत का भविष्य उन्होंने तीसरा प्रस्ताव भी पास किया और वह तीसरा प्रस्ताव यह था कि नया चर्च हम पुराने चर्च की बुनियाद पर ही बनाएंगे। और पुराने चर्च की इटों का ही उपयोग करेंगे, और पुराने चर्च के दरवाजे ही नये चर्च में लगाएंगे। और चौथा प्रस्ताव उन्होंने यह पास किया कि जब तक नया न बन जाए तब तक हम पुराने को गिराएंगे नहीं। और चारों प्रस्ताव सर्व स्वीकृति से पास हो गए। वह चर्च अभी भी नहीं गिरा होगा। क्योंकि जो भी ऐसा सोचता है कि नये को बनाने के पहले पुराने को गिराएंगे नहीं; वह न नये को बना पाता है न पुराने को गिरा पाता है। नये को बनाने की पहली शर्त पुराने को गिराने की हिम्मत। और पुराने के गिराने की हिम्मत से नये को बनाने की क्षमता पैदा होती है। असल में जो कहते हैं कि हम जब तक नये को न बना लेंगे, तब तक हम पुराने को न गिराएंगे। ऐसे लोग पुराने के साथ जीने के इतने आदी हो जाते हैं कि वे नये को बनाने की कल्पना भी खो देते हैं। इस कहानी से अपनी बात इसलिए शुरू करना चाहता हूं कि यह हमारा देश भी इसी तरह के प्रस्ताव कर रहा है पांच हजार वर्षों से। पांच हजार वर्षों से हम एक मरी हुई कौम हैं। पांच हजार वर्षों से हम पुराने में ही जी रहे हैं। और नये को निर्माण करने की बात सदा पोस्टपोन करते चले जाते हैं। और जितना पुराने के साथ रहने की आदत बढ़ती जाती है उतना ही पुराने से मोह बढ़ता जाता है। भारत का एक ही दुर्भाग्य है कि हम पुराने से अपने को मुक्त नहीं कर पा रहे हैं। पुराने का मोह हमारे प्राण लिए लेता है। और जब कभी हम पुराने को थोड़ा-बहुत छोड़ते भी हैं, तो जिसे हम नया कह कर पकड़ते हैं, वह सारी दुनिया के लिए तब तक बहुत पहले पुराना हो चुका होता है। अगर हम कभी कुछ नया भी पकड़ते हैं, तो वह तभी पकड़ते हैं जब वह भी सारी दुनिया में पुराना हो जाता है। जिस देश की आत्मा पुराने के साथ इस भांति बंध गई हो, उस देश की आत्मा जवान नहीं रह जाती, बूढ़ी हो जाती है। यह हमारा देश एक बूढ़ा देश है और इस देश की सारी तकलीफें इसके बूढ़े होने से पैदा हो रही हैं। सारी दुनिया जवान है। हम बूढ़े हैं। इस जवान दुनिया के साथ हमारे ये बूढ़े पैर नहीं चल पाते। और इस जवान दुनिया के साथ हमारा बूढ़ा मन भी नहीं दौड़ पाता । और इस जवान दुनिया के साथ हमारे बूढ़े मन का कोई तालमेल नहीं बैठता। तब हम एक ही काम करते हैं कि हम सारी दुनिया को गाली देकर अपने मन में तृप्ति पाने की कोशिश करते हैं। असल में बूढ़े मन का यह लक्षण है कि वह जवान को गाली देकर तृप्ति पा लेता है। हम सारी दुनिया की निंदा किए रहते हैं। हम सारी दुनिया को भौतिकवादी कहते हैं। मैटीरियलिस्ट कहते हैं । और जिनको हम भौतिकवादी कहते हैं, उन्हीं के सामने हम हाथ जोड़े भीख भी मांगते रहते हैं। जिनको हम गाली देते हैं, उनके गेहूं से हमारी गाली की भी ताकत आती है। जिनको हम गाली देते हैं, उनसे हम आलपिन से लेकर बम बनाने की सारी कला भी सीखते हैं। जिनको हम गाली देते हैं, उन पर ही हमारा जिंदा रहना निर्भर हो गया है। फिर भी हम गाली दिए जाते हैं। इस गाली के पीछे कारण हैं। असल में गाली सिर्फ इंपोटेंट माइंड का लक्षण है। जब चित्त बिलकुल निर्वीर्य हो जाता है तो सिवाय गाली देने के और कुछ भी नहीं कर पाता । और आश्चर्य तो यह है कि जिनको हम गाली देते हैं उनकी ही नकल हमें करनी पड़ती है। लेकिन वह नकल भी हम इतने बेमन से करते हैं, और इतने पीछे करते हैं कि सिर्फ हंसी पैदा कर पाती Page 16 of 197 http://www.oshoworld.com

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