Book Title: Bhaktamar Stotra Author(s): Hiralal Jain Publisher: Shastra Swadhya MalaPage 21
________________ (१८) इसी में आगे कहा गया है:आत्म-ज्योति-निधिरनवधिर्-द्रष्टुरानन्द-हेतुः कर्मक्षोणी-पटल-पिहितो योऽनवाप्यः परेषां । हस्ते कुर्वन्त्यनति चिरतस्तं भवद्भविभाजः _____ स्तोत्र-बन्धप्रकृति-परुषोद्दाम-धात्री-खनित्रैः ॥१५॥ हे भगवन् ! जैसे पृथ्वी में गढ़ा हुआ धन कुदाली के बिना प्राप्त नहीं हो सकता, उसी तरह कर्म रूपी परदे के भीतर छुपा हुआ आत्मज्ञान आपके स्तोत्रों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता । जब आप की स्तुति से कर्मों का पटल क्षीण होगा, तभी आत्मज्ञान प्राप्त हो सकता है, अन्य प्रकार से नहीं। श्री विद्यानन्द स्वामी ने अपनी आप्त-परीक्षा में बताया है : श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः । इत्याहुस्-तद्गुण-स्तोत्रं शास्त्रादौ मुनि-पुंगवाः ॥ अर्थ-परमेष्ठी के गुणस्मरण से कल्याण मार्ग (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र) की प्राप्ति होती है। अतः बड़े-बड़े आचार्यों ने शास्त्र के प्रारम्भ में उनके गुणों का स्तवन किया है। ___ उन गुणों के प्रति हमारा आकर्षण हमारे पिछले कर्मों को भी हटाता है। इस ओर मन लगाने से हमारी रुचि आत्मचिन्तन व आत्म निरीक्षण की ओर झुकने लगती है जिससे मानव को संसार के पाप तथा बुराइयों से घृणा होने लगती है और उसके जीवन का मार्ग ही बदल जाता है। वह आत्म कल्याण की ओर बढ़ने लगता है और अन्त में संसार के बन्धनों को काटकर पूर्ण शान्ति प्राप्त करने में समर्थ होता है । पापक्षय तथा परमात्मदशा की प्राप्ति इस भक्तामर स्तोत्र में स्वयं श्री मानतुंगाचार्य ने भी बड़े ही भक्तिपूर्ण शब्दों में इस भाव को दर्शाया है:Page Navigation
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