Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 108
________________ ( ६६ ) ज्ञान पूज्य है, अमर आपका, इसीलिए कहलाते बुद्ध । भुवनत्रय के सुख - संवर्द्धक, अत: तुम्हीं शंकर हो शुद्ध ॥ मोक्ष - मार्ग के आद्य प्रवर्तक, अतः विधाता कहे गणेश । तुम सम अवनी पर पुरुषोत्तम, और कौन होगा अखिलेश || २५ | तीन लोक के दुःखहरण करने वाले हे तुम्हें भूमण्डल के निर्मल - भूषण, आदि जिनेश्वर तुम्हें हे त्रिभुवन के अखिलेश्वर हो, तुमको बारम्बार नमन भव-सागर के शोषक पोषक, भव्य जनों के तुम्हें नमन ॥ २६ ॥ नमन । नमन || गुणसमूह एकत्रित होकर, तुझमें यदि पा चुके प्रवेश | क्या आश्चर्य न मिल पाये हों, अन्य आश्रय उन्हें जिनेश || देव कहे जाने वालों से आश्रित होकर गर्वित दोष । तेरी ओर न झांक सके वे, स्वप्नमात्र में हे गुणकोष ॥२७॥ उन्नत तरु अशोक के आश्रित, निर्मल किरणोन्नत वाला । रूप आपका दिपता सुन्दर, तमहर मनहर छवि वाला || वितरण किरण निकर तमहारक, दिनकर घनके अधिक समीप । नीलाचल पर्वत पर होकर, नीराजन करता ले दीप ||२८|| मणि मुक्ता किरणों से चित्रित, अद्भुत शोभित सिंहासन । कान्तिमान् कंचन-सा दिखता, जिस पर तव कमनीय वदन ॥ उदयाचल के तुंग शिखर से, मानो सहस्ररश्मि वाला । किरण- जाल फैलाकर निकला, हो करने को उजियाला ॥२६॥ दुरते सुन्दर चंवर विमल अति, नवल- कुन्द के पुष्प समान । शोभा पाती देह आपकी, रौप्य धवल - सी आभावान ॥ कनकाचल के तुंग शृंग से, झर झर झरता है निर्भर । चन्द्र-प्रभा सम उछल रही हो, मानो उसके ही तट पर ॥ ३०॥

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