Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 112
________________ ( ७३ ) भक्तामर स्तोत्र हिन्दी ( श्री रतनलाल जी जैन) भक्तसुरों के झके सिरों की मणियों के जो प्रतिभासक, अति प्रगाढ़ पापान्धकार के जग में विश्रुत जो नाशक; भव-पयोधि में पड़े जनों के एक मात्र जो हैं आधार, सबसे पहले कर उन प्रभु की पाद-बन्दना भली प्रकार ॥१॥ सकल वाङ्मय-तत्त्वज्ञान से जिनकी प्रतिभा अति निष्णात, उन इन्द्रादिक देवों तक ने किया स्तवन जिनका अवदात, अति सुन्दर त्रिजगन्मनोहर स्तोत्रों से नित ही सविशेष उन आदिनाथ विभु की स्तुति मैं करता हूं हो मुग्ध विशेष ॥२॥ देवों द्वारा चरण तुम्हारे वन्दनीय हैं, हे अभिराम ! मैं मति हीन महा निलज्ज हो करने चला स्तवन अभिराम, चन्द्र-बिम्ब को देख सलिल में, लेना चाहे बोलो कौन ? बालक को तज और जगत में, करे पकड़ने का हठ कौन ? ॥३॥ होकर सुर-गुरु तुल्य बुद्धि में कौन गुणों को सके बखान, हे गुण सागर ! तेरे सद्गुण शशि समान है शुभ्र महान् ; प्रलय-काल की चण्ड हवा जब सागर को देती झकझोर, है ऐसा जन कौन, भुजा से जो सकता हो उसको पौर ? ॥४॥ यद्यपि मैं अति शक्ति-हीन हूँ भक्ति-भाव-वश फिर भी आज, स्तवन तुम्हारा करने को मैं हुआ समुद्यत, हे जिनराज ! अपने शिशु की रक्षा के हित आत्म-शक्ति का कर न विचार मृगपति-सम्मुख धावित होता क्या न कहो मृग प्रेम प्रसार?॥५॥ अल्प बुद्धि हूँ, बुध-मानव का हँसी पात्र मैं हूं जिनराज ! भक्ति तुम्हारी मुखरित मुझको पर करती है सहसा आज;

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