Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 119
________________ (८०) जिस रण में कुन्तान-भिन्न-गज की बहती है शोणित-धार, अति आतुर योद्धा हैं जिससे तिर तिर कर जाने को पार, उनके द्वारा दुर्जय अरि उस भीम युद्ध में जाता हार, तेरे पद पंकज-वन का जो लेते आश्रय भली प्रकार ॥४३॥ जिस सागर में लगी हुई है अतिशय भीषण बाडव आग। मकर, पीठ, पाठीन आदि से और क्षुब्ध जो है बड़भाग ! लेकर तेरा नाम अभयः हो जाते उस सागर से पार, वे नर जिनके यान यद्यपि पड़े हुए हैं अति मंझधार ॥४४॥ महाजलोदर - रोग - भार से हुई दशा जिनकी दयनीय, जीने की सब आशाओं को छोड़ चुके जो, हे रमणीय ! लगा देह में अपनी तेरे पद पद्यों का सुभग पराग, सुन्दरता में हो जाते हैं, कामदेव-सम वे बड़भाग ॥४५॥ बड़ी बड़ी दृढ़ जंजीरों से बंधा हुआ है जिनका गात, और गयीं छिल जाँघे जिनकी बड़ी बेड़ियों के पा घात, बन्धन भय से मुक्त शीघ्र ही हो जाते हैं वे स्वयमेव, नाम तुम्हारा जपते हैं जो शुद्ध हृदय से मनुज सदैव ॥४६॥ समद नाग, संग्राम, केसरी, फणधर, बन्धन, दाव, नदीश, और जलोदर आदिक के भय सारे ही वे, हे जगदीश ! हो जाते हैं दूर शीघ्र ही उस मनुष्य के अपने आप, तेरे इस अति रम्य स्तवन का करता है जो निशदिन जाप ॥४७॥ भक्ति - भाव - वश गूंथी मैंने तेरे गुणसमूह से आज, रुचिर वर्णमय विविध पुष्पयुत स्तवन-मालिका यह जिनराज! इस माला को करे कण्ठगत भक्ति-युक्त जो नर समुदाय, 'मानतुंग' वह अक्षय लक्ष्मी निश्चय ही पावे सुखदाय ॥४८॥

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