Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 118
________________ (७६) धर्म कथन में जैसी महिमा हुई तुम्हारी, हे जिनराज ! नहीं अन्य की वैसी महिमा हुई कभी भी, हे जिनराज ! निबिड़ तिमिर को हरनेवाला जैसा हैं दिनकर का तेज, वैसा सारे ग्रह-पुञ्जों का कभी नहीं हो सकता तेज ॥३७॥ मद से सने कपोलों पर निज सुन अलिकुल की गुन-गुन तान, वद्धिंगत होता जाता है जिसका प्रतिक्षण कोप महान, ऐसे उद्धत ऐरावत को सम्मुख आते देख, जिनेश ! तेरे आश्रित लोग न पाते कभी जरा भी भय का लेश ॥३८॥ जिसने नाना मत्त हाथियों के कुम्भों को सतत विदार, रक्त-सने गज मुक्ताओं से किया धरा का नव शृंगार, वह मृगपति भी नहीं आक्रमण उस नर पर करता, जिनदेव ! तव युग चरणाचल पर आश्रित जो रहता है मनुज सदैव ॥३६॥ जो है प्रलय-पवन से प्रेरित अति प्रचण्डतम अनल-समान, अतिशय उज्ज्वल शोले जिससे फैल रहे सर्वत्र महान, हे जिनेश ! जो सम्मुख आता द्रुतगति से करने विश्वान्त, नामोच्चारण-जल से तेरे वह दावानल होता शान्त ॥४०॥ रक्त नयन हैं, पिकी-कण्ठ सा जिसका अतिशय श्यामन काय, और क्रोध से होकर उद्धत फैला फण जो सम्मुख बाय, उस भुजंग' को लांघे वह नर होकर भय से मुक्त सदैव, नागदमन तव नाम हृदय में जिसके रहता है जिनदेव ! ॥४१॥ बल - सम्पन्न-नराधिप - सेना जिसमें नाग तुरंग अपार, उछल उछल कर करते रहते घन निनाद-सा नाद अपार, तेरे नामोच्चारण से प्रभु ! जाती रण में वह यों हार, जैसे रवि-किरणों से होता नष्ट रात्रि का तिमिर अपार ॥४२॥

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