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तीन जगत की उपमाओं को जिसने जीत लिया सर्वत्र, कहां तुम्हारा यह मुख-मंडल हरता जो देवों के वक्त्र ? और कहाँ वह विधु का मण्डल सह कलंक औ दीन मलीन, जो पलाश - सम हो जाता है दिन में, हे प्रभु कान्ति-विहीन ॥ १३॥
तीनों जग में व्याप रहे हैं, हे प्रभु ! तेरे गुण कमनीय, पूर्ण चन्द्र की कला-तुल्य जो हैं अति निर्मल अति रमणीय; तीनों जग के अधिपतियों के अधिपति का है जिनको प्राप्त, आश्रय उनको रोक सकेगा कहो कौन होने से व्याप्त ? ॥१४॥ कर न सकीं यदि सुर-ललनाएँ विकृत तेरे मन को, ईश ! तो इसमें आश्चर्य्य-कौन-सा है, बोलो, हे त्रिजगदीश ? प्रलयकाल के प्रबल पवन से हिल जाते हैं शैल महान्, पर क्या कभी चलित होता है, बोलो, मन्दर अचल महान ? ।।१५।।
धूम न जिसमें, स्नेह न जिसमें और वर्तिका से जो हीन, चण्डे हवा के झोकों में भी जो रहता है कम्प - विहीन; हे प्रभु, तुम तो ऐसे ही हो अतुलित अनुपम दीप महान; जो करता सम्पूर्ण त्रिजग को एक साथ ही प्रभा प्रदान || १६॥ राहू तुझको कभी न गहता, कभी न तू होता है अस्त, सदा प्रकाशित होते तुझसे एक साथ ही लोक समस्त; नहीं घनों से रुक सकता है, हे प्रभु तेरा तेज महान, हे मुनीन्द्र, तू दिनकर से भी बढ़कर है अति महिम- निधान ॥ १७॥ सतत उदित रहता है, हरता मोह- तिमिर जो निविड़ महान, राहु ग्रसित जो कभी न होता, और न कर सकते घन म्लान; हे प्रभु, तेरा मुख - सरोज यह है अपूर्व शशि - बिम्ब-समान, कान्तिमान अति, जो करता है सारे जग को प्रभा प्रदान ॥ १८ ॥