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(७४) ऋतु बसंत में कोयल गाती मधुर-मधुर जो गीत अनेक उसका कारण आम्र-मंजरी जग में है बस केवल एक ॥६॥ तेरी संस्तुति के प्रभाव से जन्म-जन्म के अघ सम्पूर्ण, मनुज मात्र के क्षण ही भर में, वैसे ही हो जाते चूर्ण; . चञ्चरीक-सा अतिशय श्यामल जगव्यापी निशिका तमजाल, सविता की स्वर्णिम किरणों से ज्यों प्रणष्ट होता तत्काल ॥७॥ यही समझ कर अल्प बुद्धि भी रचता हूँ मैं स्तवन महान् जो सज्जन के मन को हरता तव प्रभाव से, हे द्युतिमान् ! पानी की लघु-लघु बूंदें ज्यों कमल-दलों पर पड़, मतिमान ! अच्छी लगतीं, मन को हरती, मुक्ताफल-सी होकर भान ॥८॥ हे प्रभु, तेरे अमल स्तवन की महिमा का क्या करूँ बखान, तेरी पावन पुण्य कथा तक हरती जग के पातक म्लान; दूर भानु के रहते ही ज्यों फैल चतुर्दिक उसका घाम, जलजों को कर विकसित सरमें तम का करता काम तमाम ॥६॥ हे भूतेश्वर ! हे जगभूषण ! इसमें क्या अचरज की वात, स्तवन तुम्हारा करके यदि नर तुझसा ही होवे प्रतिभात; है कैसा वह मालिक जग में जो प्रतिदिन कर विभव प्रदान, अपने आश्रित लोगों कोभी कर न सके यदि आत्म-समान ॥१०॥ निनिमेष नयनों से तुझको लेता है जो मनुज निहार, उसकी आँखें और कहीं भी होती तुष्ट न भली प्रकार; विधु से सुन्दर दुग्ध-सिन्धु का पीकर निर्मल मीठा नीर, कौन अज्ञ चाहेगा पीना जल निधि का अति खारा नीर?॥११॥ जिनके द्वारा हुआ विनिर्मित तेरा सुन्दर निर्मल गात, राग-रहित परमाणु पुञ्ज वे उतने ही थे जग में प्राप्त; अपर रूप इस वसुधा भर में, हे प्रभु, तुझसा अति अभिराम, इसीलिए तो नहीं दीखता, हे भुवनों के रत्न ललाम ॥१२॥