Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 111
________________ । (७२) रण में भालों से वेधित गज, तन से बहता रक्त अपार । वीर लड़ाकू जहँ आतुर हैं, रुधिर-नदी करने को पार ॥ भक्त तुम्हारा हो निराश तह, लख अरिसेना दुर्जयरूप । तव पादारविन्द पा आश्रय, जय पाता उपहार-स्वरूप ॥४३॥ वह समुद्र कि जिसमें होवें, मच्छ मगर एवं घडियाल । तूफां लेकर उठती होवें, भयकारी लहरें उत्ताल । भ्रमर-चक्र में फंसे हुये हों, बीचों बीच अगर जल-यान । छुटकारा पा जाते दुख से, करने वाले तेरा ध्यान ॥४४॥ असहनीय उत्पन्न हुआ हो, विकट जलोदर पीड़ा भार । जीने की आशा छोड़ी हो, देख दशा दयनीय अपार ॥ ऐसे व्याकुल मानव पाकर, तेरी पद-रज संजीवन । स्वास्थ्य-लाभकर बनता उसका, कामदेव सा सुन्दर तन ॥४५॥ लोह-शृंखला से जकड़ी है, नख से सिख तक देह समस्त । घुटने-जंघे छिले बेड़ियों, से अधीर जो हैं अतित्रस्त ॥ भगवन ऐसे बन्दीजन भी, तेरे नाम-मन्त्र की जाप । जप कर गत-बन्धन हो जाते, क्षण भर में अपने ही आप ॥४६॥ वृषभेश्वर के गुण स्तवन का, करते अहि-निशि जो चिंतन । भय भी भयाकुलित हो उनसे, भग जाता है हे स्वामिन ॥ कुंजर-समर-सिंह-शोक-रुज, अहि दावानल कारागार । इनके अतिभीषण दुःखों का, हो जाता क्षण में संहार ॥४७॥ हे प्रभु तेरे गुणोद्यान की, क्यारी से चुन दिव्य-ललाम । गूंथी विविध वर्ण सुमनों की, गुण-माला सुन्दर अभिराम ॥ श्रद्धासहित भविकजन जो भी, कण्ठाभरण बनाते हैं । . मानतुंग-सम निश्चित सुन्दर, मोक्ष-लक्ष्मी पाते हैं ॥४८॥

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