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(६८) नाथ आपका मुख जब करता, अन्धकार का · सत्यानाश । तब दिन में रवि और रात्रि में, चन्द्र-बिम्ब का विफल प्रयास ॥ धान्य -खेत जब धरती तल के, पके हुये हों अति अभिराम । शोर मचाते जल को लादे, हुये धनों से तब क्या काम ॥१९॥ जैसा शोभित होता प्रभु का, स्वपर-प्रकाशक उत्तम ज्ञान । हरिहरादि देवों में वैसा, कभी नहीं हो सकता भान ।। अति ज्योतिर्मय महारतन का, जो महत्व देखा जाता। क्या वह किरणाकुलित कांच में, अरे कभी लेखा जाता ॥२०॥ हरिहरादि देवों का ही मैं, मानूं उत्तम अवलोकन । क्योंकि उन्हें देखने भर से, तुझसे तोषित होता मन ।। है परन्तु क्या तुम्हें देखने, से हे स्वामिन् ! मुझको लाभ । जन्म जन्म में भी न लुभा, पाते कोई यह मम, अमिताभ ॥२१॥ सौ सौ नारी सौ सौ सुत को, जनती रहती सौ सौ ठौर । तुम से सुत को जनने वाली, जननी महती क्या है और ? तारागण को सर्व दिशाएँ, धरें नहीं कोई खाली। पूर्व दिशा ही पूर्ण प्रतापी, दिनपति को जनने वाली ॥२२॥ तुम को परम पुरुष मुनि मानें, विमल वर्ण रवि तमहारी। तुम्हें प्राप्त कर मृत्युञ्जय के, बन जाते जन अधिकारी। तुम्हें छोड़कर अन्य न कोई, शिवपुर-पथ बतलाता है। किन्तु विपर्यय मार्ग बता कर, भव-भव में भटकाता है ॥२३॥ तुम्हें आद्य अक्षय अनन्त प्रभु, एकानेक तथा योगीश । ब्रह्मा ईश्वर या जगदीश्वर, विदितयोग मुनिनाथ मुनीश ॥ विमलं ज्ञानमय या मकरध्वज, जगन्नाथ जगपति जगदीश । इत्यादिक नामों कर माने, सन्त निरन्तर विभो निधीश ॥२४॥