Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

Previous | Next

Page 105
________________ ( ६६ ) · करती मधुर गान पिक मधु में, जगजन मनहर अति अभिराम । उसमें हेतु सरस फल फूलों, के युत हरे-भरे तरु -आम ||६|| जिनवर की स्तुति करने से, चिर संचित भविजन के पाप । पल भर में भग जाते निश्चित, इधर-उधर अपने ही आप ॥ सकल लोक में व्याप्त रात्रि का भ्रमर सरीखा काला ध्वान्त । प्रातः रवि की उग्र किरण लख, हो जाता क्षण में प्राणान्त ॥ ७ ॥ मैं मतिहीन दीन प्रभु तेरी, शुरू करूं स्तुति अर्घ-हान । प्रभु-प्रभाव ही चित्त रहेगा, सन्तों का निश्चय से मान ॥ जैसे कमल - पत्र पर जल-कण, मोती कैसे आभावान । दिपते हैं फिर छिपते हैं असली मोती में हे भगवान ||८|| दूर रहे स्तोत्र आपका, जो कि सर्वथा है. निर्दोष । पुण्य- कथा ही किन्तु आपकी हर लेती है. कल्मष - कोष ॥ प्रभा प्रफुल्लित करती रहती, सर के कमलों को भरपूर । फेंका करता सूर्य किरण को, आप रहा करता है दूर ॥६॥ त्रिभुवन - तिलक जगत-पति हे प्रभु! सद्गुरुओं के हे गुरुवर्य । सद्भक्तों को निजसम करते, इसमें नहीं अधिक आश्चर्य ।। स्वाश्रित जन को निजसम करते, धनी लोग धन धरनी से । नहीं करें तो उन्हें लाभ क्या ? उन धनिकों की करनी से ॥ १० ॥ हे अनिमेष विलोकनीय प्रभु, तुम्हें देखकर परम पवित्र । तोषित होते कभी नहीं हैं, नयन मानवों के अन्यत्र ॥ चन्द्र- किरण सम उज्ज्वल निर्मल, क्षीरोदधि का कर जलपान । कालोदधि का खारा पानी, पोना चाहे कौन पुमान ॥ ११ ॥ जिन जितने जैसे अणुओं से, निर्मापित प्रभु तेरी देह । थे उतने वैसे अणु जग में, शांत-राग-मय निःसन्देह ॥ हे त्रिभुवन के शिरोभाग के अद्वितीय आभूषण-रूप । इसीलिए तो आप सरीखा नहीं दूसरों का है रूप ||१२|| ,

Loading...

Page Navigation
1 ... 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152