Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 66
________________ (२७) शत्रुकृत-हानि निरोधक को विस्मयोऽत्र यरि नाम गुणैरशेष स्त्वं संश्रितो निरवकाश-तया मुनीश । दोष-रुपात्त-विविधाश्रय-जात-गर्वैः, स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिद-पीक्षितोसि ॥२७॥ चौपाई तुम जिन पूरण गुणगण भरे, दोष गर्व करि तुम परिहरे । और देवगण प्राश्रय पाय, स्वप्न न देखे तुम फिर प्राय ॥ अर्थ-हे मुनीश्वर ! इसमें कुछ भी आश्चर्य नहीं कि आप समस्त गुणों से परिपूर्ण हैं । राग द्वेष काम क्रोध मान माया लोभ आदि दोष अन्य देवों का आश्रय पाकर गर्वीले (घमण्डी) हो गये हैं । अतः वे दोष आपके पास कभी स्वप्न में भी नहीं आते । ॥२७॥ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो तत्त-तवाणं । मन्त्र-ॐ नमो चक्रेश्वरी देवी चक्रधारिणी चक्रेण अनुकूलं साधय साधय शत्रून् उन्मूलय उन्मूलय स्वाहा । ____No wonder that, after finding space nowhere, You have, O Great Sage !, been resorted to by all the excellenes; and in dreams even Thou art never looked at by blemishes, which, having obained many resorts, have become inflated with pride. 27:

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