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(६१) एक अनेक, अनन्त ज्ञान-मय, या अचिन्त्य महिमा का धाम ।। कामजितादि नाम ले गाते, सन्त पुरुष तव यश सुखकर ॥२४॥ विबुध-वंद्य है ज्ञान तुम्हारा, अतः तुम्हीं हो 'बुद्ध' जिनेश ! त्रिभुवन में सुख के संबर्द्धक, हो तुम ही 'शंकर' करुणेश !!: .. मुक्तिमार्ग के आद्य-प्रवर्तक, होने से 'ब्रह्मा' हो तुम। ... 'पुरुषोत्तम' तुम सम जगती पर, और कौन होगा विश्वेश ॥२५॥ त्रिभुवन के संताप-निवारक, सुख-संचारक ! तुम्हें प्रणाम। . जगतीतल के निर्मल भूषण, निर्गत-दूषण ! तुम्हें प्रणाम ! भक्तिभाव से अभिवंदन है, जगदीश्वर ! तब बारम्बार । भव सर-शोषक ! स्वीकृत हो, मम पद-पंकज में पुनः प्रणाम ॥२६॥ गुण सम्पूर्ण सिमट त्रिभुवन के, तुम में व्याप गये चित चोर ! तो अचरज क्या, मिला न आश्रय, जब उनको जगमें चहुं ओर ।। दोषों को तो गर्व बहुत था, विविध देवताभासों का। अतः न वे प्रति स्वप्नों में भी, देख सके प्रभु ! तेरी ओर ॥२७॥ अन्तरिक्ष में बिछ जाता है, श्याम घटाओं का जब जाल ।। उसके तट दिपता है भासुर, तमहर ज्यों रवि-बिम्ब विशाल ॥ उच्च अशोक वृक्ष के तट में, त्यों तव दिव्य रूप भगवान् ! , कितना प्रिय लगता है ! जिसको, लोचन होते देख निहाल ॥२८॥ पूर्व दिशा में यथा प्रभाकर, निज किरणों का तान वितान- " होता उदित उदयगिरि पर कर, निविड़ निशा-तमका अवसान ॥ रत्नजटित सिंहासन पर त्यों, तव सुवर्ण सा दिव्य शरीर- ." करवाता है भव्य जनों को, वर सौन्दर्य-सुधा का पान ॥२६॥ चन्द्र-किरण सम उज्ज्वल झर झर, बहती है जिनमें जलधार। ऐसे रम्य 'निर्भरों से ज्यों, मेरु स्वर्ण तट लसैं अपार ॥