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(६२) त्यों ही महामहिम ! कुन्दन-सम, दीप्त तुम्हारा वपु अम्लान । कुन्द कुसुम सम चँवर ढुरै तब, बिखराता सौन्दर्य उदार ॥३०॥ चन्द्रकला-सम रम्य प्रभामय, अगणित मुक्ता-जटित ललाम । तीन छत्र नित शोभित रहते, तव मस्तक ऊपर अभिराम ॥ ऊपर तनकर रोक सूर्य का, प्रखर प्रताप तुम्हें योगीन्द्र ! त्रिभुवन का परमेश्वर मानों, वे प्रगटा देते गुणधाम ॥३१॥ नभ-मण्डल में दुन्दुभि सुमधुर, स्वर भर भर कर अति गम्भीर । जगवी पर सद्धर्म-राज्य की, जय घोषित कर देते धीर ॥ देते वही विश्व को तेरे, मधुर मिलन का शुभ सवाद । बंदीजन बनकर गाते हैं, वही विमल यश तव-वरवीर ॥३२॥ पारिजात, मंदार आदि सुरद्रुम, के सुरभित रम्य सुमन । सुर चुनकर सुगन्धि-मय जलसंग बरसाते, हो प्रेम मगन ।। मंद समीर संग जब नभ से, होती उनकी वृष्टि ललाम । तब यों लगता मानों भू पर-बिखर रहे तव दिव्य वयन ॥३३॥ त्रिभुवन का सौन्दर्य सिमट यदि, मूर्तिमान बनकर आवे । तो वह भी तव भामण्डल की, द्युति लखकर शर्मा जावे ।। कोटि-सूर्य-धुति फीका करता, प्रभु ! तव मुख फिर भी है सौम्य । कर अवसान निशा-तमका जो, शान्ति सुधा नित बरसावे ॥३४॥ भारतिभूषण ! दिव्य-ध्वनि तव, होती है अत्यन्त उदार । प्राणिमात्र के खुल जाते हैं, जिससे स्वर्ग मुक्ति के द्वार । धर्म-तत्व का विशद विवेचन, अद्भुत ढंग से करती वह । सुर नर मुनि पशु-वृन्द सभी सुन, जिस पर कर लेते अधिकार ॥३५॥ झिलमिल होती जिनमें नखद्युति, यथा गगन में चन्द्र किरण । खिले हुए नव पद्म-पुज-प्रभु, गौरवर्ण तव विमल चरण ।।