Book Title: Bhaktamar Stotra Author(s): Hiralal Jain Publisher: Shastra Swadhya MalaPage 68
________________ (२६) नेत्र पीड़ा व बिच्छू विष नाशक सिंहासने मणि-मयूख-शिखा-विचित्रे, विभाजते तव वपुः कनका-वदातम् । विम्बं वियद्-विलस-दंशु-लता-वितानं, तुंगोदयाद्रि-शिरसीव सहस्त्र-रश्मः ॥२६॥ सिंहासन मणि किरण विचित्र, तापर कंचन वरण पवित्र । तुम तन शोभित किरण विथार, ज्यों उदयाचल रवि तमहार अर्थ-हीरा, पन्ना, लाल, नीलम, पुखराज आदि अनेक प्रकार के रत्नों से जड़ित सिंहासन पर आपका सुवर्ण समान शरीर बहुत शोभा पाता है। जैसे उन्नत उदयाचल के शिखर पर फैली हुई अपनी किरणों के साथ सूर्य का बिम्ब शोभित होता है ॥२६। ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं-णमो घोर-तवाणं । मन्त्रा-ॐ णमो मिऊण पासं विसहर फुलिंगमंतो विसहरनाम रकार मंतो सर्वसिद्धि-मोहे इह समरंताण मण्णे- जागई कप्पदुमच्चं सर्वसिद्धि: ॐ नमः स्वाहा । Thy gold-lustred body shines verily on the throne like the disc of the sun on the summit which is variegated with the mass of rays of gems, of the high Rising.mountain, the rays of which (disc), spreading in the firmament like a creeper, look (cxceedingly) graceful. 29.Page Navigation
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