Book Title: Bhaktamar Stotra Author(s): Hiralal Jain Publisher: Shastra Swadhya MalaPage 79
________________ (४०) अभिव निवारक कल्पान्त-काल-पवनोहत-बहिन-कल्पं, १. दावानलं ज्वलित-मुज्ज्वल-मुत्स्फुलिंगम् । विश्वं जिघित्सुमिव सम्मुख-मापतन्तं, 1: त्वन्नाम-कीर्तन-जलं शमयत्य-शेषम् ॥४०॥ प्रलय पवन कर उठी आग जो तास पटंतर, : वम फुलिंग शिखा-उत्तङ्ग परजलें निरंतर । मगत समस्त निगल्ल भस्म करहैगी मानों, if तड़तड़ात दव अनल जोर चहुँ विशा उठानों। सो इक छिन में उपशमें, नाम नीर तब लेत। होय सरोवर परिणमैं, विकसित कमल समेत ।। ___अर्थ-हे भगवन् ! प्रलय-समय जैसी तेज वायु से धधकती हुई बन की अग्नि, जिसमें कि भयानक फुलिंग (चिनगारे) बहुत ऊंचे निकल रहे हों ऐसी भयानक हो कि मानो सारे संसार को भस्म कर डालेगी, उसके सामने आजाने पर हृदय में लिया हुआ आपका नामरूपीजल तत्काल उसको बुझाकर शान्त कर देता है ॥४०॥ ऋद्धि- ॐ ह्रीं अहं णमो कायवलीणं । मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रां ह्रीं अग्निमुपशमनं शान्ति कुरु कुरु स्वाहा। The conflagration of the forest, which is equal to the fire fanned by the winds of the doorrsday and which emits bright burning sparks and which advances forward as if to devour the world, is totally extinguished by the recitation of Thy name. 40.Page Navigation
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