Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 46
________________ (७) सर्व विष व संकट निवारक त्वत्संस्तवेन भव-सन्तति-सन्निबद्धं, पापं क्षणात्क्षय-मुपैति शरीर-भाजाम् । आक्रान्त-लोक-मलिनील-मशेष-माशु, सूर्यांशु-भिन्न-मिव शार्वर-मन्धकारम् ॥ ७॥ तुम जस जंपत जन छिनमाहि, जनम जनम के पाप नशाहिं। ज्यों रवि उगै फट तत्काल, अलिवत् नील निशा-तम-जाल॥ अर्थ-हे नाथ ! आपकी स्तुति करने से जीवों के अनेक भवों के संचित पापकर्म क्षण भर में क्षय हो जाते हैं । जैसे कि प्रातः समय सूर्य की किरणों से भौरे की तरह काला, जगत में फैला हुआ रात्रि का अन्धकार तत्काल छिन्न भिन्न हो जाता है ॥७॥ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो बीजबुद्धीणं । मन्त्र-ॐह्रीं हं सं श्रां श्रीं क्रौं क्लीं सर्वदुरित सङ्कट क्षुद्रोपद्रवकष्ट-निवारणं कुरु कुरु स्वाहा । As the black-bee-like darkness of the night, over-spreading the universe, is dispelled instantaneously by the rays of the sun, so is the sin of men, accumulated through cycles of births, dispelled by the eulogies offered to you. 7.

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