Book Title: Bhaktamar Stotra Author(s): Hiralal Jain Publisher: Shastra Swadhya MalaPage 44
________________ (५.) नेत्ररोग निवारक सोऽहं तथापि तव भक्ति-वशान्मुनीश, ___ कर्तुं स्तवं विंगत-शक्ति-रपि प्रवृत्तः । प्रीत्यात्म-वीर्य-मविचार्य मृगी मृगेन्द्र, नाभ्येति किं निज-शिशोः परि-पालनार्थम् ।। सो मैं शक्तिहीन थुति कर्, भक्ति भाववश कछु नहिं डरूं। ज्यों मृगि निज सुत पालन हेत, मृगपति सन्मुख जाय अचेत॥ अर्थ-हे मुनिनाथ भगवन् ! फिर भी शक्तिहीन मैं, भक्तिवश आपकी स्तुति करने के लिए तैयार हुआ हूं। जिस तरह सिंह द्वारा पकड़े गये अपने बच्चे को छुड़ाने के लिये बच्चे के मोहवश अपनी अल्पशक्ति का विचार न करके हिरनी सिंह का सामना करने के लिये जा पहुंचती है ॥५॥ ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहं णमो अणंतोहि जिणाणं । मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं क्रौं सर्व सङ्कट निवारणेभ्यः सुपार्श्व यक्षेभ्यो नमो नमः स्वाहा।' Though devoid of power, yet urged by devotion, O Great Sage, I am determined to eulogise. Does not a deer, not taking into account its own might, face a lion to protect its young-one out of affection? 5.Page Navigation
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