Book Title: Bhaktamar Stotra Author(s): Hiralal Jain Publisher: Shastra Swadhya MalaPage 28
________________ (२३) वह सोने के बदले में मिट्टी लेना चाहता है। वीतरागी प्रभु के गुणों के चिन्तन से जब अनादि काल से कर्मों के चक्कर में फँसा हुआ आत्मा पवित्र हो सकता है और संसार के दुःखों से छूट सकता है तो हमारी भक्ति का लक्ष्य वही होना चाहिये । सांसारिक विभूतियां तो पुण्य की चेरी हैं, उनका प्राप्त होना क्या कठिन है ? भक्ति का उपयोग तो आत्मकल्याण में ही श्रेयस्कर है। इसी बात को आचार्य पूज्यपाद स्वामी 'सर्वार्थसिद्धि' का मंगलाचरण करते हुये लिखते मोक्ष-मार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्म-भूभृताम् । ज्ञातारं विश्व-तत्वानां वन्दे तद्गुण-लब्धये ।। अर्थ-मोक्षमार्ग के नेता-प्रवर्तक (हितोपदेशी), कर्मरूपी पर्वतों को आत्मा से दूर कर देने वाले (वीतरागी) तथा संसार के समस्त तत्त्वों को जानने वाले (सर्वज्ञ) भगवान् को मैं तीनों गुणों की प्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूं। . __ जैन धर्म में भक्ति (श्रद्धा), ज्ञान और चरित्र (आचरण) की त्रिवेणी को मोक्ष का मार्ग माना गया है । मात्र किसी एक से काम नहीं चल सकता। इनमें भक्ति का प्रथम स्थान है। भगवान् की सच्ची भक्ति करने से मोहरूपी अन्धकार विलीन हो जाता है और सम्यग्दर्शन प्रकट होकर हृदय की कलुषता को दूर करके आत्मज्ञान तथा आत्मानुभूति जाग्रत कर देता है । इससे सच्ची शान्ति और पवित्रता प्राप्त होती है। इस प्रकार भगवान् के स्मरण और ध्यान से आत्मा की पूर्ण श्रद्धा जाग्रत होती है तथा वीतराग चारित्र की प्राप्ति का साधन दष्टिगोचर होने लगता है। अतः सच्ची चतुराई और निपुणता यही है कि हम भगवान् के चरणों का आश्रय न छोड़ें। उनकी भक्ति हमें संसार समुद्र से पार होने में नौका का काम देगी।Page Navigation
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