Book Title: Bhaktamar Stotra
Author(s): Hiralal Jain
Publisher: Shastra Swadhya Mala

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Page 41
________________ (२) अर्थ-जो भक्तिवश झुकते हुए (नमस्कार करते हुए) देवों के मुकुटों की रत्न-कान्ति को दीप्तिमान करते हैं, पाप-अन्धकार को दूर करते हैं, तथा कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुद्र में भटकने वाली जनता की रक्षा करने वाले हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान के चरणों को प्रणाम करके मैं भी उस आदिनाथ (ऋषभनाथ) भगवान की स्तुति करता हूँ, जिसका स्तवन समस्त शास्त्रों के जानकार, परम बुद्धिमान इन्द्रों ने त्रिलोकवर्ती (तीन लोक के) जीवों का मन मोहित करने वाले बड़े सुन्दर स्तोत्रों से किया है ।।१-२॥ (प्रथम श्लोक) ऋद्धि--ॐ ह्रीं अहं णमो अरिहंताणं णमो जिणाणं ह्रां ह्रीं हूं ह्रीं ह्रः असि आ उ सा अप्रतिचक्रे फट विचक्राय झौं झौं स्वाहा। मंत्र-ॐ ह्रां ह्रीं हूं श्रीं क्लीं ब्लू क्रौं ॐ ह्रीं नमः स्वाहा । (दूसरा श्लोक) ऋद्धि-ॐ ह्रीं अहँ णमो ओहिजिणाणं । मंत्र-ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं ब्लू नमः। Haviag duly bowed down to the feet of Jina, which, at the beginning of the yuga, was the prop for men drowned in the ocean of worldliness, and which illumine the lustre of the gems of the prostrated heads of the devoted gods, and which dispel the vast gloom of sins. 1. I sball indeed pay homage to that First Jinendra, Who with beautiful orisons captivating the minds of all the three worlds, has been worshipped by the lords of the gods endowed with profound wisdom born of all the Shastras. * 2, • The correct understanding of the entire speech.

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