Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi

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Page 15
________________ वि० सं० ३१०-३३६ वर्ष ] [ भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास के लिए क्षण भर का भी विश्वास नहीं है। जो विचार किया है वह शीघ्र ही कर लीजिये । राजा ने धरण के सामने देखकर कहा धरण ! सूरिजी महाराज क्या कह रहे हैं ? धरण ने कहा सूरिजी सत्य कह रहे हैं। यदि आप तैयार हैं तो आपकी सेवा में मैं भी तैयार हूँ। बस, दोनों ने निश्चय कर लिया कि इस असार संसार का त्याग कर सूरिजी के चरण कमलों में दीक्षा लेकर आत्म कल्याण करेंगे। राजा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र राहूप को गजतिलक कर दिया और राजा राहूप तथा मंत्री गोसल ने दीक्षा का बड़ा भारी महोत्सव किया। सिन्ध में गव रुद्राट के बाद राजा की दीक्षा होना यह पहला ही नंबर था। अतः दुनिया में बड़ी भारी हलचल मच गई । राजा और धरण के साथ कई ३५ नरनारी दीक्षा लेने को और भी तैयार हो गये। सूरिजी महाराज ने शुभ मुहूर्त में उन ३७ मुमुक्षुओं को विधि विधान के साथ भगवती जैन दीक्षा देकर उन सबका उद्धार किया। धरण का नाम मुनि जयानन्द रख दिया । मुनि जयानन्द बाल ब्रह्मचारी थे : धर्म प्रचार का पहिले से ही आपको शौक था । मुनि जयानन्द पर सूरिजी की पहिले से ही पूर्ण कृपा थी। दीक्षा लेने पर तो और भी विशेष हो गई । मुनि जयानन्द सबसे पहिले तो जैनागमों के अभ्यास को आवश्यक समझ कर उसके अध्ययन में लग गया । पर जिन्होंने अपने कर्म को कमजोर एवं निर्बल बना दिये फिर थी देवी सरस्वती की मेहरवानी उनको ज्ञान पढ़ने में क्या देर लगती है। यही हाल मुनि जयानन्द का था। उसने स्वल्प समय में वर्तमान जैन जैनेतर साहित्य का अध्ययन कर लिया। श्राचार्य रत्नप्रभसूरि भूभ्रमण करते हुये नागपुर नगर में पधारे वहाँ पर देवी सच्चायिका की सम्मति से महा महोत्सवपूर्बक मुनि जयानन्द को सर्वगुण सम्पन्न समम कर सूरिपद से अलंकृत कर श्रापका नाम अपने पट्टक्रमानुसार यक्षदेवसूरि रख दिया । कहा है कि 'कर्मेशूरा वह धर्मेशूरा' संसार में धरण कर्म में शुरवीर था अब यक्षदेवसूरि बनकर धर्म में शूरवीर बन गये । आचार्य यक्षदेवसूरि नागपुर से विहार कर मेदनीपुर, मुग्धपुर, शंखपुर, खटकुप नगर आदिन गरों में भ्रमण करते हुये उपकेशपुर पधारे । नूतनाचार्य के पधारने से जनता में खब उत्साह बढ़ गया । सूरिजी का अच्छा स्वागत किया। सूरिजी ने महावीर और श्राचार्य रत्नप्रभसूरि की यात्रा का बड़ा ही आनन्द मनाया । कुछ अर्सा वहाँ स्थिरता का माडव्यपुर होते हुये पाल्दिका नगरी में पदार्पण किया । पाल्हिका नगरी जैसे धन-धान्य से समृद्धिशाली थी वैसे ही उसमें जैनों की आबादी भरपूर थी एवं जैनों का एक केन्द्र ही था। सूरिजी का वीरतापूर्वक व्याख्यान सबको रुचिकर था । श्री संघ ने साग्रह चतुर्मास की प्रार्थना और सूरिजी ने लाभा-लाभ का कारण जान स्वीकार करली । सूरिजी का व्याख्यान हमेशा होता था । सूरिजी की एक तो तरुणावस्था थी दूसरे संसार में आप वीर थे अतः आपका व्याख्यान वीरतापूर्ण होता था, जिस किसी ने एक बार सुन लिया उसके हृदय में फिर कायरता तो रह ही नहीं सकती थी। सरिजी इस बात पर अधिक जोर दिया करते थे कि जैनधर्मवीरों का धर्म है तीर पुरुषों ने ही जैनधर्म का उद्धार एवं प्रचार किया है। तुम भी वीर बनो । मुक्ति वीरों के लिये हैं न कि कायरों के लिये । जैसे वीरता की ओर आपका लक्ष था वैसे ही उदारता की ओर भी आपका ध्यान था। एक दिन सूरिजी ने अपने व्याख्यान में फरमाया कि यों तो मनुष्य में अनेक गुण होना चाहिये पर सबसे पहिले मनुष्य में उदारता गुण की परमावश्यक है जिसमें एक उदारता का गुण है उसमें दूसरे सैकड़ों गुण स्वयं ही आ जाते हैं । यदि दूसरे सैकड़ों गुण हैं पर एक उदारता का गुण नहीं है तो दूसरे कोई गुण ७५२ [रावलोक और धर्म की दीक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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