Book Title: Bhagwan Parshwanath ki Parampara ka Itihas Purvarddh 02
Author(s): Gyansundarvijay
Publisher: Ratnaprabhakar Gyan Pushpamala Falodi
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वि० सं० ३१०-३३६ वर्षे ]
[ भगवान् पावेनाथ की परम्परा का इतिहास
किसी ने कहा क्यों धरण तू तो वाणिया है, मास खाकर तेरे कौनसा संग्राम में जाना है तू तो अपनी दुकान पर बैठकर लून मिरच तोला कर ।
धरण ने कहा यह आपकी भ्रान्ति है कि मांस खाने वाला ही संग्राम कर सकता हैं पर अमांसभोजी में कितनी ताकत होती है यह आपको मालूम नहीं है यदि किसी को परीक्षा करनी हो तो मेरे सामने आइये फिर
आपको मालूम हो जायगा कि ताकत मांस भक्षी में ज्यादा है या अमांस भोजी में । धरण था बाल ब्रह्मचारी उनके चेहरे पर प्रचण्ड तप तेज झलक रहा था किसी की ताकत नहीं हुई कि धरण के सामने आकर खड़ा हो ।
किसी ने कहा धरण तेरे अन्दर कितनी ही ताकत क्यों न हो पर अाखिर वह तेल घृत तोलने में ही काम आबेगी । न कि राज करने में ?
__ धरण ने कहा कि क्या अमांस भोजी राज नहीं कर सकता है देखिये शिवनगर, डमरेल, उच्चकोट उपकेशपुर, चन्द्रावती, शिवपुरी, कोरंटपुर, पद्मावती, आदि के सब राजा अमांसभोजी होते हुये भी वे बड़ी वीरता से राज करते हैं और कई बार संग्राम में माँस भक्षियों को इस कदर परास्त किये हैं कि दूसरी बार उन्होंने कभी ऐसा साहस ही नहीं किया कि अमांस भोजियों के सामने जाकर खड़े हो । दूसरे राज करना कौनसी बड़ी भारी बात है परन्तु हमारा धर्म सिद्धान्त तो राज करने के वजाय राज त्यागने में अधिक गौरव समझता है । और पूर्व जमाने में बड़े बड़े चक्रवर्ती राजाओं ने राज्य त्याग करने में ही अपना गौरव एवं कल्याण समझा है । भाइयो ! त्याग कोई साधारण बात नहीं है एवं त्याग करना कोई कायरों का कामभी नहीं है । त्याग में बड़ी भारी वीरता रही हुई है और वीर होगा वही त्याग कर सकता है पर जो इन्द्रियों के गुलाम और विषय के कीड़े बन चुके हैं वे त्याग के महत्त्व को नहीं समझते हैं जैसे एक ग्रामीण भील रत्न के गुण को नहीं समझता है इत्यादि धरण ने उन मांस भक्षियों को ऐसे आड़े हाथों लिया कि उसके सामने किसी ने चूं तक भी नहीं की। धरण ने अपनी कुशलता से कई माँस भक्षियों को मांस का त्याग करवा कर अहिंसा भगवती के उपासक बना दिये । अतः इस कार्य में धरण की रुचि बढ़ गई औरजहाँ जाता वहाँ इसका ही प्रचार करता।
धरण मामाल से अपने घर पर आया पर उसके दिल में वही बात खटक रही थी कि मैं एक छोटा बड़ा राज स्थापन कर वहाँ का गज करूँ पर यह कार्य कोई साधारण नहीं था कि जिसको धारण आसानी से कर सके । फिर भी धरण के दिल में इस काम के लिये सच्ची लगन थी।
पहिले जमाने में राज छोटे २ हिस्सों में विभक्त थे और वे थे निर्मायक कि थोड़े थोड़े कारणों से एक दूसरे के साथ लड़ाइये किया करते थे । कभी कभी विदेशियों के आक्रमण भी हुआ करते थे । एक दिन वीरपुर पर भी एक सेना ने आकर आक्रमण किया उस समय धारण का पिता गोसल वहां का मंत्री था । उसने अपनी ओर से लड़ाई की तैयारिये की जिसमें धरण भी शामिल हुश्रा केवल शामिल ही क्यों पर धरण तो सेनापति बनने को तैयार हो गया । राजा कोक के मन में शंका तो रही थी कि यह महाजन ( बणिया ) क्या करेगा ? परन्तु धरण ने अच्छा विश्वास दिला दिया । अतः सेनापति पद धरण को दिया गया । बस, फिर तो था ही क्या, पहिले दिन की लड़ाई में धरण की विजय हुई। अतः धरण का उत्साह खूब बढ़ गया दूसरे दिन जोर से युद्ध हुआ और तीसरे दिन के संग्राम में दुश्मन की सेना को भगा दिया ७५०
[ अमांस भोजी धरण की वीरता
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