________________
जिस प्रार्थना में तुम बिलकुल लीन हो गये वही प्रार्थना है।
फिर तुम्हारी प्रार्थनाएं तो भिखमंगे की प्रार्थनाएं हैं। तुम कुछ न कुछ मांग रहे हो। दीन हो। नहीं, प्रार्थना दीन भाव से नहीं उठती। प्रार्थना अर्पण है, समर्पण है। तुम अपने को अर्पित करते हो, मांगते नहीं।
जो प्रार्थना दीन भाव से उठती है, कुछ मांगने के लिए उठती है, जिस प्रार्थना में तुम प्रार्थी हो जाते हो, चूक गये। फिर अष्टावक्र की प्रार्थना नहीं है वह। होगी किसी और की लेकिन अष्टावक्र के शास्त्र में, अष्टावक्र के मार्ग पर उसके लिए कोई जगह नहीं।
घोर तम छाया चारों ओर घटायें घिर आईं घनघोर वेग मारुत का है प्रतिकूल हिले जाते हैं पर्वत-मूल गरजता सागर बारंबार कौन पहुंचा देगा उस पार?
तरंगें उठती पर्वताकार भयंकर करती हाहाकार अरे उनके फेनिल उच्छवास तरी का करते हैं उपहास हाथ से गई छूट पतवार कौन पहुंचा देगा उस पार?
ग्रास करने नौका स्वच्छंद घूमते फिरते जलचरवृंद देखकर काला सिंधु अनंत हो गया है साहस का अंत तरंगें हैं उत्ताल अपार
कौन पहुंचा देगा उस पार? यह सच है कि हम असहाय हैं। तो प्रार्थना के दो रूप हो सकते हैं। या तो हम अपनी असहाय अवस्था में मागें उससे कि कुछ दे ताकि हम आलंबन पा जायें। या हम अपनी असहाय अवस्था में सिर्फ झुक जायें, कुछ मांगें न। असहाय अवस्था में झुक जायें।
घोर तम छाया चारों ओर