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प्रतिभा से युक्त, विभिन्न परम्पराओं ही नहीं वरन् विभिन्न विधाओं का उनका प्रशस्त ज्ञान, विभिन्न विषयों पर शाश्वत महत्त्व का विपुल साहित्य प्रसूत करने में कारक बना।
अष्टकप्रकरण में भी जैन दृष्टिकोण का समर्थन करते हए एवं जैनेतर मत का खण्डन करते हुए आचार्य ने जैन, वैदिक और बौद्ध प्राचीन ग्रन्थों से उनके मतों को अत्यन्त सहजता से अथवा इच्छानुसार प्रचुर मात्रा में उद्धृत किया है या उनका सन्दर्भ दिया है । इस प्रक्रिया में कई उद्धरण एवं सन्दर्भ प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से अष्टकप्रकरण में उपलब्ध होते हैं। हरिभद्र ने कुछ श्लोकों एवं गाथाओं को कर्ता के नाम-सङ्केत के साथ उद्धृत किया है, जैसे - न्यायावतार के प्रसङ्ग में महामति' ( सिद्धसेन दिवाकर ) और महाभारत के प्रसङ्ग में महात्मना ( महर्षि व्यास ), तो कुछ सन्दर्भो को ग्रन्थ-शीर्षक के साथ उद्धृत किया है जैसे - शिवधर्मोत्तरपुराण और लङ्कावतारसूत्र ( सद्धर्मलङ्कावतारसूत्र )। लेकिन ऐसे उद्धरणों या सङ्केतों की बहुलता है जिनमें कर्ता और ग्रन्थ-नाम दोनों के सङ्केत प्राय: 'जिनागमो'५, 'सूत्रमित्यादि'६ और 'सूत्रे'७ इन शब्दों के साथ किये गये हैं।
यहाँ 'अष्टकप्रकरण' में उपलब्ध कुछ उद्धरणों, सन्दर्भो या सङ्केतों के मूल स्रोतों के अन्वेषण एवं विश्लेषण का प्रयास है। इस दिशा में आगे बढ़ने से पूर्व 'अष्टकप्रकरण' के महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, १९४१ संस्करण के सम्पादक खुशालदास जगजीवनदास के प्रयासों का उल्लेख आवश्यक है। यद्यपि उन्होंने सभी उद्धरणों का व्यवस्थित रूप से स्रोत ढूँढ़ने का प्रयास नहीं किया है फिर भी उनका प्रयास उल्लेखनीय है ।
अष्टकप्रकरण के उद्धरणों एवं सन्दर्भो का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि आचार्य हरिभद्र ने प्रसङ्गवश वाल्मीकि रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, विष्णुस्मृति, शिवधर्मोत्तरपुराण आदि वैदिक परम्परा के ग्रन्थों, आचाराङ्ग, व्याख्याप्रज्ञप्ति-भगवती, कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, न्यायावतार, विशेषावश्यकभाष्य आदि जैन-परम्परा के ग्रन्थों तथा बौद्ध ग्रन्थ लङ्कावतारसूत्र आदि से उद्धृत किया है। जैसा कि पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं अष्टकप्रकरण में मात्र शिवधर्मोत्तर और लङ्कावतारसूत्र ग्रन्थों का ही शीर्षक के साथ उल्लेख है, अन्य स्रोत-ग्रन्थों को ज्ञात करना पड़ता है।
अष्टकप्रकरण में प्रथम उद्धरण 'अग्निकारिकाष्टकम्' में प्राप्त होता है। जैनेतरों द्वारा कृत पूजा, आहुति आदि को सांसारिक उपलब्धियों
का ही साधन बताते हुए हरिभद्र ने निरूपित किया है कि परम लक्ष्य मोक्ष, Jain Education International For Private & Personal Use Only
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