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अष्टकप्रकरणम्
इमौ शुश्रूषमाणस्य गृहानावसतो गुरू । प्रव्रज्याप्यानुपूर्येण न्याय्याऽन्ते मे भविष्यति ॥ ५ ॥
घर में रहते हुए अपने माता-पिता की सेवा करने से मेरी प्रव्रज्या भी अनुक्रम से अन्त में सम्यक् होगी ॥ ५ ॥
सर्वपापनिवृत्तिर्यत् सर्वथैषा सतां मता । गुरुद्वेगकृतोऽत्यन्तं नेयं न्याय्योपपद्यते ॥ ६ ॥
जो प्रव्रज्या सब पापों की निवृत्तिरूप है और सब प्रकार से सत्पुरुषों द्वारा इष्ट है, अत: माता-पिता को अत्यन्त उद्वेग देने वाली मेरी यह प्रव्रज्या उनके जीवित रहते न्यायसङ्गत प्रतीत नहीं होती है ॥ ६ ॥
प्रारम्भमङ्गलं ह्यस्या गुरुशुश्रूषणं परम् । एतौ धर्मप्रवृत्तानां नृणां पूजाऽऽस्पदं महत् ॥ ७ ॥
गुरु स्थानीय माता-पिता की सेवा इस प्रव्रज्या का आदि और उत्तम मङ्गल है, क्योंकि ये माता-पिता धर्म में प्रवृत्त मनुष्यों के महान् पूजास्पद
स कृतज्ञः पुमान् लोके स धर्मगुरुपूजकः ।। स शुद्धधर्मभाक् चैव य एतौ प्रतिपद्यते ॥ ८ ॥
वही मनुष्य इस संसार में कृतज्ञ है, वही धर्म और गुरु का पूजक है और वही शुद्ध धर्म का पात्र है, जो माता-पिता की पूजा करता है ॥ ८ ॥
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