Book Title: Ashtakprakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 164
________________ 114 अष्टकप्रकरणम् एवं विवाहधर्मादौ तथाशिल्पनिरूपणे । न दोषो ह्युत्तमं पुण्यमित्थमेव विपच्यते ॥ ५ ॥ इसी प्रकार विवाह करने, कुल, ग्राम और राज्य - धर्म को अङ्गीकार करने में तथा शिल्प-निरूपण में भी दोष नहीं है, कारण कि उत्तम पुण्य वाले तीर्थङ्कर नामकर्म का विपाक इसी रीति से होता है ॥ ५ ॥ किञ्चेहाधिकदोषेभ्यः सत्त्वानां रक्षणं तु यत् । उपकारस्तदेवैषां प्रवृत्यङ्गं तथास्य च ॥ ६ ॥ इसके अतिरिक्त प्राणियों का अधिक दोषों से रक्षणरूप जो परोपकार है, वही तीर्थङ्करों की प्रवृत्ति का कारण है ॥ ६ ॥ नागादे रक्षणं यद्वद्गर्ताद्याकर्षणेन तु । कुर्वन्न दोषवांस्तद्वदन्यथासम्भवादयम् ॥ ७ ॥ जिस प्रकार सर्पादि से रक्षा के लिए किसी को गर्तादि में खींचने से कोई दोष नहीं है, उसी प्रकार अन्य विकल्प न होने से विवाह - धर्मादि का उपदेश करने वाला दोषी नहीं है ॥ ७ ॥ इत्थं चैतदिहैष्टव्यमन्यथा देशनाप्लयम् । कुधर्मादिनिमित्तत्वाद्दोषायैव प्रसज्यते ॥ ८ ॥ इस प्रकार इस राज्यादि के दान को निर्दोष मानना चाहिये अन्यथा धर्मदेशना भी कुधर्म, कुशास्त्र आदि में निमित्त रूप होने से सदोष कही जायगी ॥ ८ 11 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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