Book Title: Ashtakprakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

View full book text
Previous | Next

Page 174
________________ ३१ तीर्थकृद्देशनाष्टकम् वीतरागोऽपि सद्वद्यतीर्थकृन्नामकर्मणः । उदयेन तथा धर्मदेशनायां प्रवर्तते ॥ १ ॥ तीर्थङ्कर नामकर्म का उदय होने से वीतराग होने पर भी वे धर्मदेशना में प्रवृत्त होते हैं ॥ १ ॥ वरबोधित आरभ्य परार्थोद्यत एव हि । तथाविधं समादत्ते कर्म स्फीताशयः पुमान् ॥ २ ॥ श्रेष्ठ बोधि प्राप्त होने पर अर्थात् उत्तम सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होते ही प्रारम्भ से ही परोपकार में तत्पर, उदार आशय वाले मनुष्य को निश्चित रूप से तीर्थङ्कर नामकर्म बँधता है ॥ २ ॥ यावत्सन्तिष्ठते तस्य तत्तावत्सम्प्रवर्तते । तत्स्वभावत्वतो धर्मदेशनायां जगद्गुरुः ॥ ३ ॥ जब तक तीर्थङ्कर नामकर्म का उदय विद्यमान रहता है, तब तक जगद्गुरु धर्मदेशना उनका स्वभाव होने से वे धर्मदेशना में प्रवृत्त रहते वचनं चैकमप्यस्य हितां भिन्नार्थगोचराम् । भूयसामपि सत्त्वानां प्रतिपत्तिं करोत्यलम् ॥ ४ ॥ उन जगद्गुरु का मात्र एक वचन भी, अनेक जीवों को विविध वस्तुओं के सन्दर्भ में हितकारक पूर्ण प्रतीति अच्छी प्रकार से करा देता है ॥ ४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190