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अष्टकप्रकरणम्
असम्भवीदं यद्वस्तु बुद्धानां निर्वृतिश्रुतेः । सम्भवित्वेऽत्वियं न स्यात्तत्रैकस्यास्यनिर्वृतौ ॥ ५ ॥
किन्तु यह असम्भव है क्योंकि 'बुद्ध मोक्ष में गये हैं' - ऐसा उनके ही आगम कहते हैं, पुनः इसे यदि सम्भव भी मानें तो एक भी मनुष्य के शेष रहते बुद्धों को मोक्ष प्राप्त नहीं होगा ।। ५ ।।
तदेवं चिन्तनं न्यायात्तत्वतो मोहसङ्गतम् । साध्ववस्थान्तरे ज्ञेयं बोध्यादेः प्रार्थनादिवत् ॥ ६ ॥
यह चिन्तन उपर्युक्त सम्भवित- असम्भावित दृष्टि से अथवा परमार्थदृष्टि से तो मोहयुक्त है किन्तु साधकावस्था में अर्थात् सराग अवस्था में सम्भव है, जैसे बोधिलाभ के लिए प्रार्थना की जाती है वैसे यह प्रार्थना भी सम्भव है ॥ ६ ॥
अपकारिणि सद्बुद्धिर्विशिष्टार्थप्रसाधनात् । आत्मम्भरित्वपिशुना तदपायानपेक्षिणी ॥ ७ ॥
अपकर्त्ता पर उपकार की सद्बुद्धि विशिष्ट अर्थ मोक्ष - प्राप्ति में साधन होने से मात्र आत्मोन्नति की सूचक है, क्योंकि अपकारी के दुःख और अहित से वह निरपेक्ष होता है ।। ७ ।।
एवं
सामायिकादन्यदवस्थान्तरभद्रकम् ।
स्याच्चित्तं तत्तु संशुद्धेर्ज्ञेयमेकान्तभद्रकम् ॥ ८ ॥
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इस प्रकार सामायिक से भिन्न अवस्था में भी चित्त कुछ समय के लिए कल्याणप्रद होता है, किन्तु सामायिक अर्थात् समभाव की साधना को तो पूर्णतया शुद्ध होने से सर्वथा कल्याणकर जानना चाहिए ।। ८ ।।
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