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________________ 102 अष्टकप्रकरणम् इमौ शुश्रूषमाणस्य गृहानावसतो गुरू । प्रव्रज्याप्यानुपूर्येण न्याय्याऽन्ते मे भविष्यति ॥ ५ ॥ घर में रहते हुए अपने माता-पिता की सेवा करने से मेरी प्रव्रज्या भी अनुक्रम से अन्त में सम्यक् होगी ॥ ५ ॥ सर्वपापनिवृत्तिर्यत् सर्वथैषा सतां मता । गुरुद्वेगकृतोऽत्यन्तं नेयं न्याय्योपपद्यते ॥ ६ ॥ जो प्रव्रज्या सब पापों की निवृत्तिरूप है और सब प्रकार से सत्पुरुषों द्वारा इष्ट है, अत: माता-पिता को अत्यन्त उद्वेग देने वाली मेरी यह प्रव्रज्या उनके जीवित रहते न्यायसङ्गत प्रतीत नहीं होती है ॥ ६ ॥ प्रारम्भमङ्गलं ह्यस्या गुरुशुश्रूषणं परम् । एतौ धर्मप्रवृत्तानां नृणां पूजाऽऽस्पदं महत् ॥ ७ ॥ गुरु स्थानीय माता-पिता की सेवा इस प्रव्रज्या का आदि और उत्तम मङ्गल है, क्योंकि ये माता-पिता धर्म में प्रवृत्त मनुष्यों के महान् पूजास्पद स कृतज्ञः पुमान् लोके स धर्मगुरुपूजकः ।। स शुद्धधर्मभाक् चैव य एतौ प्रतिपद्यते ॥ ८ ॥ वही मनुष्य इस संसार में कृतज्ञ है, वही धर्म और गुरु का पूजक है और वही शुद्ध धर्म का पात्र है, जो माता-पिता की पूजा करता है ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
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