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अष्टकप्रकरणम्
ज्ञापकं चात्र भगवान् निष्क्रान्तोऽपि द्विजन्मने । देवदूष्यं ददद्धीमाननुकम्पाविशेषतः ॥ ५ ॥
यहाँ ( साधु-प्रदत्त ) दान विषयक दृष्टान्त स्वयं भगवान् महावीर हैं, निष्क्रान्त ( गृहस्थाश्रम त्यागी ) ज्ञानी प्रभु अनुकम्पा से ब्राह्मण को देवदूष्य देते हैं ॥ ५ ॥
इत्थमाशयभेदेन नातोऽधिकरणं मतम् । अपि त्वन्यद्गुणस्थानं गुणान्तरनिबन्धनम् ॥ ६ ॥
इस प्रकार आशय भेद होने से गृहस्थ का दान पापकारी प्रवृत्ति नहीं मानी गयी है, अपितु देशविरत सम्यग्दृष्टि रूप गृहस्थ के पञ्चम गुणस्थान को दान ( अतिथि संविभाग व्रत ) के द्वारा अन्य सर्वविरति रूप छठे गुणस्थान का हेतु माना गया है ।। ६ ।।
ये तु दानं प्रशंसन्तीत्यादिसूत्रं तु यत्स्मृतम् । अवस्थाभेदविषयं द्रष्टव्यं तन्महात्मभिः ॥ ७ ॥
'जो दान की प्रशंसा करते हैं' .... इत्यादि जो सूत्र ( श्लोक ) कहे गये हैं, उसे ज्ञानियों ने दाता और पात्र की अवस्था विशेष को लक्ष्यकर कहा है, ऐसा समझना चाहिए ॥ ७ ॥
एवं न कश्चिदस्यार्थस्तत्त्वतोऽस्मात्प्रसिद्धयति । अपूर्वः किन्तु तत्पूर्वमेवं कर्म प्रहीयते ॥ ८ ॥
इस प्रकार तीर्थङ्कर के दान से तत्त्वत: कोई अपूर्व-अभिनव प्रयोजन सिद्ध नहीं होता परन्तु इस प्रकार के दान से पूर्व में बँधे हुए कर्म क्षीण होते हैं ।। ८ ॥
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