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पुण्यानुबन्धिपुण्यप्रधानफलाष्टकम्
अतः प्रकर्षसम्प्राप्ताद्विज्ञेयं फलमुत्तमम् । तीर्थकृत्वं सदौचित्य प्रवृत्त्या मोक्षसाधकम् ॥ १ ॥
इसलिए उत्कृष्टता को प्राप्त पुण्यानुबन्धी पुण्य में सदा औचित्यपूर्ण प्रवृत्ति के कारण मोक्षसाधक तीर्थङ्कर नामकर्म का उत्तम फल प्राप्त होता है, यह समझना चाहिए ॥ १ ॥
सदौचित्यप्रवृत्तिश्च गर्भादारभ्य तस्य यत् । तत्राप्यभिग्रहो न्याय्यः श्रूयते हि जगद्गुरोः ॥ २ ॥
उस जगद्गुरु तीर्थङ्कर महावीर का गर्भ से लेकर ही औचित्यपूर्ण आचरण दिखाई देता है। गर्भ में भी उनका न्याय - सङ्गत अभिग्रह अर्थात् प्रतिज्ञा- विशेष सुनी जाती है ।। २ ।।
पित्रुद्वेगनिरासाय महतां स्थितिसिद्धये । इष्टकार्यसमृद्ध्यर्थमेवम्भूतो जिनागमे ॥ ३ ॥
माता-पिता के उद्वेग अर्थात् चिन्ता को दूर करने के लिए, महान् पुरुषों की व्यवस्था स्थापित करने के लिए अर्थात् अन्य महान् लोग भी माता-पिता का उद्वेग दूरकर प्रधान मार्ग का अनुसरण करें तथा इष्ट कार्य की निष्पत्ति के लिए उनका यह अभिग्रह जिनागम ( कल्पसूत्र ) में भी प्राप्त होता है ।। ३ ।।
जीवतो गृहवासेऽस्मिन् यावन्मे पितराविमौ । तावदेवाधिवत्स्यामि गृहानहमपीष्टतः ॥ ४
जब तक मेरे माता-पिता जीवित रहेंगे तब तक मैं भी इच्छापूर्वक गृहस्थवास में रहूँगा ॥ ४ ॥
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