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अष्टकप्रकरणम्
शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं कर्तव्यं सर्वथा नरैः ।। यत्प्रभावादपातिन्यो जायन्ते सर्वसम्पदः ॥ ५ ॥
अत: मनुष्य को सर्वथा शुभफलदायी पुण्यकर्म करना चाहिए, जिस ( शुभफलदायी कर्म ) के प्रभाव से समस्त अनश्वर सम्पदाएँ प्राप्त होती
सदागमविशुद्धेन क्रियते तच्च चेतसा । एतच्च ज्ञानवृद्धेभ्यो जायते नान्यतः क्वचित् ॥ ६ ॥
सदा आगम द्वारा विशुद्ध चित्त से शुभ पुण्यबन्ध होता है और यह शुद्ध चित्त ज्ञानवृद्धों अर्थात् श्रुतस्थविरों की आज्ञा में रहने से उत्पन्न होता है, अन्य किसी कारण से नहीं ॥ ६ ॥
चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषि तं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ ७ ॥
कषायरहित चित्त आध्यात्मिक सम्पदा कहा जाता है। जिस मनुष्य का चित्तरूपी रत्न ( राग-द्वेषादि द्वारा ) हर लिया गया है उसके पास विपत्तियाँ विद्यमान रहती हैं ।। ७ ।।
दया भूतेषु वैराग्यं विधिवद्गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥ ८ ॥
जीवों पर दया, वैराग्य, विधिपूर्वक गुरुपूजन और विशुद्ध शीलवृत्ति ( हिंसादिरहित सदनुष्ठान ) ये सब पुण्यानुबन्धी पुण्य के निमित्त हैं ॥ ८ ॥
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