SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 98 अष्टकप्रकरणम् शुभानुबन्ध्यतः पुण्यं कर्तव्यं सर्वथा नरैः ।। यत्प्रभावादपातिन्यो जायन्ते सर्वसम्पदः ॥ ५ ॥ अत: मनुष्य को सर्वथा शुभफलदायी पुण्यकर्म करना चाहिए, जिस ( शुभफलदायी कर्म ) के प्रभाव से समस्त अनश्वर सम्पदाएँ प्राप्त होती सदागमविशुद्धेन क्रियते तच्च चेतसा । एतच्च ज्ञानवृद्धेभ्यो जायते नान्यतः क्वचित् ॥ ६ ॥ सदा आगम द्वारा विशुद्ध चित्त से शुभ पुण्यबन्ध होता है और यह शुद्ध चित्त ज्ञानवृद्धों अर्थात् श्रुतस्थविरों की आज्ञा में रहने से उत्पन्न होता है, अन्य किसी कारण से नहीं ॥ ६ ॥ चित्तरत्नमसंक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुषि तं दोषैस्तस्य शिष्टा विपत्तयः ॥ ७ ॥ कषायरहित चित्त आध्यात्मिक सम्पदा कहा जाता है। जिस मनुष्य का चित्तरूपी रत्न ( राग-द्वेषादि द्वारा ) हर लिया गया है उसके पास विपत्तियाँ विद्यमान रहती हैं ।। ७ ।। दया भूतेषु वैराग्यं विधिवद्गुरुपूजनम् । विशुद्धा शीलवृत्तिश्च पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥ ८ ॥ जीवों पर दया, वैराग्य, विधिपूर्वक गुरुपूजन और विशुद्ध शीलवृत्ति ( हिंसादिरहित सदनुष्ठान ) ये सब पुण्यानुबन्धी पुण्य के निमित्त हैं ॥ ८ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001665
Book TitleAshtakprakaranam
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2000
Total Pages190
LanguageSanskrit, Hindi, English
ClassificationBook_Devnagari, Religion, worship, & Principle
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy