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अष्टकप्रकरणम्
तथाविधप्रवृत्त्यादिव्यङ्ग्यं सदनुबन्धि च । ज्ञानावरणहासोत्थं प्रायो वैराग्यकारणम् ॥ ५ ॥
अपेक्षारहित प्रवृत्ति अर्थात् अनासक्त आचरण द्वारा प्रकट होने वाला यह आत्म-परिणतिरूप ज्ञान शुभ परिणाम वाला तथा ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला है और प्राय: वैराग्य का कारण रूप है ॥ ५ ॥
स्वस्थवृत्तेः प्रशान्तस्य तद्धेयत्वादिनिश्चयम् । तत्त्वसंवेदनं सम्यग् यथाशक्ति फलप्रदम् ॥ ६ ॥
तत्त्वसंवेदनरूप तीसरा ज्ञान स्वस्थवृत्ति वाले तथा प्रशान्त पुरुष को होता है। यह ज्ञान हेय, ज्ञेय एवं उपादेय आदि का निश्चय कराने वाला तथा यथाशक्ति सम्यक् फल प्रदान करने वाला है ॥ ६ ॥
न्याय्यादौ शुद्धवृत्यादिगम्यमेतत्प्रकीर्तितम् । सज्ज्ञानावरणापायं महोदयनिबन्धनम् ॥ ७ ॥
यह तत्त्वसंवेदनरूप ज्ञान न्याय आदि से शद्ध निरतिचार आचारव्यवहार से गम्य अर्थात् प्रकट होता है, यह सत् ज्ञान के आवरण के दूर हो जाने से प्रकट होता है तथा महाभ्युदय अर्थात् मोक्ष का कारण है ।। ७ ।।
एतस्मिन्सततं यत्नःकुग्रहत्त्यागतो भृशम् । मार्गश्रद्धादिभावेन कार्य आगमतत्परैः ॥ ८ ॥
आप्तप्रवचन के प्रति श्रद्धालुओं को इस तत्त्वसंवेदनरूप ज्ञान द्वारा कदाग्रह का त्याग कर श्रद्धापूर्वक मोक्षमार्ग में निरन्तर अत्यधिक प्रयत्न करना चाहिए ॥ ८ ॥
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