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२३ शासनमालिन्यनिषेधाष्टकम् यः शासनस्य मालिन्येऽनाभोगेनापि वर्तते । स तन्मिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनां ध्रुवम् ॥ १ ॥ बध्नात्यपि तदेवालं परं संसारकारणम् । विपाकदारुणं घोरं सर्वानर्थविवर्धनम् ॥ २ ॥
अज्ञानतावश भी शासन की अवनति करने वाला मनुष्य अन्य प्राणियों के मिथ्यात्व का कारण होने से निश्चित रूप से सब अनर्थों की वृद्धि करने वाला होने से घोर दारुण दुःखदायी फल देने वाले एवं संसार-वृद्धि के कारण रूप मिथ्यात्व मोहनीय कर्म को बाँधता है ॥ १-२ ।।
यस्तूत्रतौ यथाशक्ति सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम् । अन्येषां प्रतिपद्येह तदेवाप्नोत्यनुत्तरम् ॥ ३ ॥ प्रक्षीणतीव्रसंक्लेशं प्रशमादिगुणान्वितम् ।। निमित्तं सर्वसौख्यानां तथा सिद्धिसुखावहम् ॥ ४ ॥
यथासामर्थ्य जिनप्रवचन ( शासन ) की उन्नति एवं प्रभावना में प्रवृत्त मनुष्य दूसरों के सम्यक्त्व की प्राप्ति का हेतुभूत होने से तीव्र ( अनन्तानुबन्धी ) कषायों को क्षीण करने वाला एवं प्रशमादि गुणों से युक्त होकर, सभी सुखों के निमित्त तथा सिद्धि-सुख को प्राप्त कराने वाले सम्यक्त्व को प्राप्त करता है ॥ ३-४ ॥
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