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अष्टकप्रकरणम्
है - ऐसी बौद्ध दर्शन की मान्यता को स्वीकार कर, बार-बार संसार की असारता का दर्शन कर उसके त्याग के लिए उपशान्त बने हुए अर्थात् कषाय और इन्द्रिय का निग्रह करने वाले एवं सदाचरण करने वाले के भी जो भावपूर्ण अज्ञानजन्य वैराग्य है, उसे मोहगर्भ वैराग्य कहा गया है ।। ४-५ ।।
भूयांसो नामिनो बद्धा बाह्येनेच्छादिना ह्यमी । आत्मानस्तद्वशात्कष्टं भवे तिष्ठन्ति दारुणे ॥ ६ ॥ एवं विज्ञाय तत्त्यागविधिस्त्यागश्च सर्वथा । वैराग्यमाहुः सज्ज्ञानसंगतं तत्त्वदर्शिनः ॥ ७ ॥
अनेक नामरूपों अथवा पर्यायों में परिणमन कर रही एवं इच्छा अर्थात् राग-द्वेष आदि बाह्य ( आत्म-व्यतिरिक्त ) बन्धनों से बद्ध तथा उस बन्धन के कारण इस भयंकर संसार-चक्र में कष्ट सहन कर रही अनेक आत्माओं को देखकर उस बन्ध के सर्वथा त्याग को तथा त्यागविधि को तत्त्वदर्शियों ने सज्ज्ञानयुक्त वैराग्य कहा है ॥ ६-७ ।।
एतत्तत्त्वपरिज्ञानान्नियमेनोपजायते । । यतोऽतःसाधनं सिद्धरेतदेवोदितं जिनैः ॥ ८ ॥
क्योंकि यह ( सज्ज्ञानजन्य वैराग्य ) तत्त्व-ज्ञान अर्थात् आत्मादि तत्त्वों के परिणामित्वादि स्वरूप के ज्ञान से अपरिहार्य रूप से उत्पन्न होता है, अत: जिनों द्वारा इसे मुक्ति का साधन कहा गया है ।। ८ ।।
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