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वैराग्याष्टकम्
आर्त्तध्यानाख्यमेकं स्यान्मोहगर्भ तथाऽपरम् । सज्ज्ञानसङ्गतं चेति वैराग्यं त्रिविधं स्मृतम् ॥ १ ॥ ( आप्त के द्वारा ) वैराग्य तीन प्रकार का उपदिष्ट है - प्रथम, ध्यान नामक, दूसरा मोहगर्भ और तीसरा सज्ज्ञान से युक्त ॥ १ ॥
आर्त
इष्टेतरवियोगादिनिमित्तं प्रायशो हि यथाशक्त्यपि हेयादाव
उद्वेगकृद्विषादाढ्यमात्मघातादिकारणम्
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आर्त्तध्यानं ह्यदो मुख्यं वैराग्यं लोकतोमतम् ॥ ३ ॥
जो ध्यान प्रायः इष्ट और अन्य अनिष्ट के क्रमशः वियोग और संयोग के निमित्त से उत्पन्न होता हो तथा अपनी शक्ति के अनुसार ही हेय, उपादेय आदि में क्रमश: निवृत्ति, प्रवृत्ति आदि से रहित हो, मन को उद्विग्न करने वाला हो, दुःख से पूर्ण करने वाला हो, आत्मा ( शरीर अर्थ में रूढ़ ) के घात ( हिंसनताडन ) आदि में कारणभूत हो वह मुख्य रूप से आर्तध्यान है ( किन्तु ) सांसारिक दृष्टि से वह वैराग्य कहा गया है ।। २-३ ॥
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तत् । प्रवृत्त्यादिवर्जितम् ॥ २ ॥
एको नित्यस्तथाऽबद्धः क्षय्यसद्वेह सर्वथा । आत्मेति निश्चयाद्भूयो भवनैर्गुण्यदर्शनात् ॥ ४ ॥ तत्त्यागायोपशान्तस्य सद्वृत्तस्यापि भावतः । वैराग्यं तद्गतं यत्तन् मोहगर्भमुदाहृतम् ॥ ५ ॥ इस लोक में आत्मा एक है, नित्य तथा अबद्ध है ऐसी वेदान्त दर्शन की और उससे भिन्न आत्मा क्षणिक है अथवा आत्मा का सर्वथा अभाव
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