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अष्टकप्रकरणम्
विजयो ह्यत्र सन्नीत्या दुर्लभस्तत्त्ववादिनः । तद्भावेऽप्यन्तरायादि दोषोऽदृष्टविघातकृत् ॥ ५ ॥
इस छल-जाति प्रधान वाद में वस्तु-तत्त्व का यथार्थ प्रतिपादन करने वाले वादियों अर्थात् तपस्वियों की सन्नीतिपूर्वक विजय-प्राप्ति दुष्कर है। विजय प्राप्त होने पर भी पराजित वादी के लाभ, कीर्ति आदि में अन्तराय आदि दोषों का कारण होने से ऐसा वाद तपस्वी के लिए परलोक का अहित करने वाला ही होता है ।। ५ ।।
परलोकप्रधानेन मध्यस्थेन तु धीमता । स्वशास्त्रज्ञाततत्त्वेन धर्मवाद उदाहृतः ॥ ६ ॥
परलोक की प्रबल भावना वाले, मध्यस्थ अर्थात् पूर्णरूप से स्व-पर के धर्माभिनिवेश रहित और स्वशास्त्र में विद्वान् व्यक्तियों के साथ किया गया वाद धर्मवाद कहा गया है ।। ६ ।।
विजयेऽस्य फलं धर्मप्रतिपत्त्याद्यनिन्दितम् ।
आत्मनो मोहनाशश्च नियमात्तत्पराजयात् ॥ ७ ॥
इस धर्मवाद में ( तपस्वी की प्रतिपक्षी पर ) विजय होने पर धर्म की प्रतिपत्ति अर्थात् प्रतिपक्षी द्वारा धर्म-अंगीकरण, धर्मप्रभावना, मैत्री आदि प्रशस्त फल प्राप्त होता है और उस तपस्वी की पराजय से अवश्य ही उसका तत्त्व-ज्ञान विषयक मोह अर्थात् अहङ्कार का नाश होता है ।। ७ ।।
देशाद्यपेक्षया चेह विज्ञाय गुरुलाघवम् । तीर्थकृज्ज्ञातमालोच्य वादः कार्यो विपश्चिता ॥ ८ ॥
विद्वान् पुरुष को तीर्थङ्कर महावीर की शिक्षाओं का सम्यक् रूप से अनुशीलन कर देश, काल, सभा, प्रतिवादी के सन्दर्भ में जय-पराजय की अपेक्षा से अपने गौरव और लाघव का सम्यक् विचार करके ही वाद करना चाहिए ।। ८ ।।
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