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धर्मवादाष्टकम्
विषयो धर्मवादस्य प्रस्तुतार्थोपयोग्येव
प्रत्येक दर्शन या सिद्धान्त की अपेक्षा से जो मोक्ष के लिए उपयोगी और धर्म का साधन - स्वरूप हो, वही धर्मवाद का विषय है ॥ १ ॥
तत्तत्तन्त्राव्यपेक्षया ।
धर्मसाधनलक्षणः ॥ १ ॥
पञ्चैतानि पवित्राणि सर्वेषां धर्मचारिणाम् । अहिंसासत्यमस्तेयं त्यागो मैथुनवर्जनम् ॥ २ ॥
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य - ये पाँच ( जैन, सांख्य, बौद्ध, वैशेषिक आदि ) सभी धर्मावलम्बियों के लिये पवित्र हैं ॥ २ ॥
क्व खल्वेतानि युज्यन्ते मुख्यवृत्त्या क्व वा न हि । तन्त्रे तत्तन्त्रनीत्यैव विचार्य तत्त्वतो ह्यदः ॥ ३ ॥ धर्मार्थिभिः प्रमाणादेर्लक्षणं न तु युक्तिमत् । प्रयोजनाद्यभावेन तथा चाह महामतिः ॥ ४ ॥ प्रसिद्धानि प्रमाणानि व्यवहारश्च तत्कृतः । प्रमाणलक्षणस्योक्तौ ज्ञायते न प्रयोजनम् ॥ ५ ॥
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ये अहिंसादि प्रत्येक दार्शनिक सिद्धान्त में उस सिद्धान्त की मूलभूत मान्यता के अनुसार अर्थात् आत्मादि पदार्थों की नित्यानित्यादि व्यवस्थानुसार स्वतः घटित होते हैं अथवा नहीं इसका प्रत्येक धर्मावलम्बी को तत्त्वतः विचार करना चाहिए। धार्मिकों द्वारा प्रमाण आदि के लक्षण का विचार युक्तिसङ्गत नहीं है क्योंकि इसका कोई प्रयोजन नहीं है, ऐसा महामति सिद्धसेन दिवाकर
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