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१६ नित्यानित्यपक्षमण्डनाष्टकम्
नित्यानित्ये तथा देहाद् भिन्नाभिन्ने चतत्त्वतः । घटन्त आत्मनि न्यायाद्धिंसादीन्यविरोधतः ॥ १ ॥
वास्तविक दृष्टि से आत्मा नित्यानित्य तथा शरीर से भिन्नाभिन्न है। आत्मा के इस नित्यानित्य स्वरूप के कारण ही बिना किसी विरोध के नियमपूर्वक हिंसादि घटित होते हैं ॥ १ ॥
पीडाकर्तृत्वयोगेन
देहव्यापत्त्यपेक्षया । तथा हन्मीतिसङ्क्लेशाद्धिसैषा सनिबन्धना ॥ २ ॥
पीड़ा अर्थात् दुःख-वेदना की कर्त्ता होने से, शरीर-नाश की अपेक्षा होने से तथा 'मैं मारता हूँ' इस प्रकार चित्तकलुषता होने से निमित्त से युक्त है ।। २ ॥
यह हिंसा
हिंस्य कर्मविपाकेऽपि
निमित्तत्वनियोगतः ।
हिंसकस्य भवेदेषा दुष्टा दुष्टानुबन्धतः ॥ ३ ॥ हिंस्य अर्थात् जिसकी हिंसा होती है, उसके कर्म का उदय हिंसा का अवश्यम्भावी कारण है परन्तु हिंसा करने वाला हिंसा का निमित्त होने से हिंसक कहा जाता है और वह हिंसक दुष्ट चित्त के वश हिंसा करने वाला होने से दोषी अर्थात् कर्मबन्धक होता है ॥ ३ ॥
ततः सदुपदेशादेः क्लिष्टकर्मवियोगतः । शुभभावानुबन्धेन हन्ताऽस्या विरतिर्भवेत् ॥ ४ ॥ इस हिंसा से विरति अर्थात् निवृत्ति ( गुरुओं और जिनों के )
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