Book Title: Ashtakprakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Sagarmal Jain
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 136
________________ 86 अष्टकप्रकरणम् कि कोई साधु बीमार नहीं पड़ा इसलिए मेरी प्रतिज्ञा भङ्ग हुई, वस्तुत: दोषरूप है, धर्म का विधातक है ) ॥ ४ ॥ लौकिकैरपि चैषोऽर्थों दृष्टः सूक्ष्मार्थदर्शिभिः । प्रकारान्तरतः कैश्चिदत एतदुदाहृतम् ॥ ५ ॥ सूक्ष्मार्थदर्शी लौकिक पुरुषों द्वारा भी ऐसी प्रतिज्ञाओं को दोषपूर्ण माना गया है, क्योंकि ऐसी प्रतिज्ञाओं में अर्थापत्ति की अपेक्षा स्पष्ट दोष परिलक्षित होता है। क्योंकि इनमें दूसरे के रोगी/दुःखी होने का चिन्तन है। इसलिए प्रकारान्तर से वाल्मीकि आदि कुछ लोगों द्वारा यह कहा गया अङ्गेष्वेव जरां यातु यत्त्वयोपकृतं मम । नरः प्रत्युपकाराय विपत्सु लभते फलम् ॥ ६ ॥ जो तुम्हारे द्वारा मुझ पर उपकार किया गया, वह मेरे अङ्गों में ही जरा को प्राप्त करे अर्थात् मुझे प्रत्युपकार करने का अवसर ही प्राप्त न हो, क्योंकि उपकारी मनुष्य का प्रत्युपकार तो उसके विपत्तियों में पड़ने पर ही किया जा सकता है ॥ ६ ॥ एवं विरुद्धदानादौ हीनोत्तमगतेः सदा । प्रव्रज्यादिविधाने च शास्त्रोक्तन्यायबाधिते ॥ ७ ॥ द्रव्यादिभेदतो ज्ञेयो धर्मव्याघात एव हि । सम्यग्माध्यस्थ्यमालम्ब्य श्रुतधर्मव्यपेक्षया ॥ ८ ॥ ( जिस प्रकार धर्मबुद्धि से गृहीत ग्लान को औषध-दान की प्रतिज्ञा प्रकारान्तर से धर्मविरुद्ध होती है। ) इसी न्याय से शास्त्र में वर्जित आधा कर्मादि दोष से दूषित आहार के दानादि में देय-बुद्धि एवं उत्तम पात्र होते हुए भी सदा धर्मव्याघात होता है क्योंकि उससे मुनिधर्म दूषित होता है। उसी प्रकार प्रव्रज्यादि के विधान में भी जो शास्त्रविहित के विरुद्ध होता है, उससे धर्म बाधित होता है ।। ७ ।। आगम विरुद्ध दान और प्रव्रज्यादि विधान के प्रसङ्ग में भी यह धर्म बाधा द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव आदि की अपेक्षा से ही जानना चाहिए। सम्यक् माध्यस्थभाव का आलम्बन कर श्रुतधर्म अर्थात् आगम की अपेक्षा से धर्मव्याघात को समझना चाहिए ।। ८ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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