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अष्टकप्रकरणम्
मन-इन्द्रिययोगानामहानिश्चोदिता जिनैः ।
यतोत्र तत्कथं त्वस्य युक्ता स्याद् दुःखरूपता ॥ ५ ॥ जिनों द्वारा उपदिष्ट है कि तप वह है जिससे मन, इन्द्रियों और योगों की हानि न हो, इस कारण यहाँ ( तप के सम्बन्ध में ) तुम्हारी दुःखरूपता की अवधारणा किस प्रकार युक्ति-सङ्गत है ? ।। ५ ।।
यापि चानशनादिभ्यः कायपीडा मनाक् क्वचित् । व्याधिक्रियासमा सापि नेष्टसिद्ध्यात्र बाधनी ॥ ६ ॥
अनशनादि तप से जो कुछ थोड़ी शारीरिक पीड़ा होती भी है वह भी रोग-चिकित्सा के समान इष्ट-साधिका होने से बाधक नहीं है ।। ६ ॥
दृष्टा चेदर्थसंसिद्धौ कायपीडा ह्यदुःखदा । रत्नादिवणिगादीनां तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥ ७ ॥
देखा गया है कि रत्नादि की प्राप्ति हेतु व्यापारियों की इष्ट-प्रयोजन की सिद्धि में ( होने वाली ) शारीरिक पीड़ा दुःखद नहीं होती है। उसी प्रकार यहाँ ( तप के विषय में ) भी समझना चाहिए ।। ७ ।।
विशिष्टज्ञानसंवेगशमसारमतस्तपः । क्षायोपशमिकं ज्ञेयमव्याबाधसुखात्मकम् ॥ ८ ॥
तप विशिष्ट ज्ञान, विशिष्ट संवेग तथा विशिष्ट शमरूप उत्तम तत्त्व है। इस तप को चारित्र मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न अव्याबाध अर्थात् प्रशमसुखात्मक जानना चाहिए ।। ८ ।।
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