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अष्टकप्रकरणम
धर्मलाघवकृन्मूढो भिक्षयोदरपूरणम् । करोति दैन्यात्पीनाङ्गः पौरुषं हन्ति केवलम् ॥ ५ ॥
धर्म की अपकीर्ति करने वाला, अज्ञानी, भिक्षावृत्ति से उदरपूर्ति करके अपने अङ्गों को पुष्ट करने वाला वह श्रमण दीनतापूर्वक भिक्षाचर्या करके केवल अपने पुरुषार्थ का नाश करता है ।। ५ ।।
निःस्वान्धपङ्गवो ये तु न शक्ता वैक्रियान्तरे । भिक्षामटन्ति वृत्त्यर्थं वृत्तिभिक्षेयमुच्यते ॥ ६ ॥
जो निर्धन, नेत्रहीन एवं पङ्गु हैं और भिक्षावृत्ति के अतिरिक्त कृषिवाणिज्यादि क्रिया करने में समर्थ नहीं हैं, वे जीविका हेतु जो भिक्षावृत्ति करते हैं, उनकी वह भिक्षा वृत्तिभिक्षा कही जाती है ।। ६ ।।
नाति दुष्टाऽपि चामीषामेषा स्यान्नह्यमी तथा । अनुकम्पा निमित्तत्वाद् धर्मलाघवकारिणः ॥ ७ ॥
( वृत्तिभिक्षा उचित है अथवा अनुचित इस सम्बन्ध में शङ्का का निवारण करते हुए कहते हैं - ) इन ( अन्धादिकों ) की यह वृत्तिभिक्षा पौरुषघ्नीभिक्षा की भाँति न तो अति निन्दनीय है और न ही सर्वसम्पत्करी भिक्षा के तुल्य अतिप्रशस्त है क्योंकि वे ( निर्धनादि ) दया के निमित्त होने से धर्म की अप्रतिष्ठा कराने वाले नहीं हैं ।। ७ ।।
दातूणामपि चैताभ्यः फलं क्षेत्रानुसारतः । विज्ञेयमाशयाद्वापि स विशुद्धः फलप्रदः ॥ ८ ॥
उक्त तीन प्रकार के भिक्षुओं को भिक्षा देने वालों को भी पात्र के अनुसार दान का फल मिलता है, साथ ही दाता के आशय के अनुसार आत्मविशुद्धि भी होती है ।। ८ ।।
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