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अष्टकप्रकरणम्
( वास्तविक अर्थों में विद्या-ग्रहण ) नहीं है, उसी प्रकार अविधि से ग्रहण किये गये प्रत्याख्यान को भी अप्रत्याख्यान रूप मानना चाहिए ( क्योंकि यह मोक्षरूपी सम्यक् फल प्रदान नहीं करता है ) ॥ ४ ॥
अक्षयोपशमात्त्यागपरिणामे तथाऽसति । जिनाज्ञाभक्तिसंवेगवैकल्यादेतदप्यसत् ॥ ५ ॥
क्षयोपशम के अभाव में जिनाज्ञा में भक्ति एवं संवेग की विकलता अर्थात् अश्रद्धा होने से तत् परिणामजन्य द्रव्य-प्रत्याख्यान भी अशुभ है ॥ ५ ॥
उदग्रवीर्यविरहात् क्लिष्टकर्मोदयेन यत् । बाध्यते तदपि द्रव्यप्रत्याख्यानं प्रकीर्तितम् ॥ ६ ॥
क्लिष्ट कर्मोदय के कारण उत्कट वीर्य या तीव्र शक्ति का अभाव होने से जो प्रत्याख्यान खण्डित होता है, वह भी द्रव्य-प्रत्याख्यान है ।। ६ ।।
एतद्विपर्ययाद्भावप्रत्याख्यानं जिनोदितम् । सम्यक्चारित्रारूपत्वानियमान्मुक्तिसाधनम् ॥ ७ ॥
इस द्रव्य-प्रत्याख्यान के विपरीत सम्यक्-चारित्र रूप भाव-प्रत्याख्यान अवश्य ही मोक्षसाधक है - ऐसा जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट है ॥ ७ ॥
जिनोक्तमिति सद्भक्त्या ग्रहणे द्रव्यतोऽप्यदः । बाध्यमानं भवेद्भावप्रत्याख्यानस्य कारणम् ॥ ८ ॥
जिनेश्वर द्वारा उपदिष्ट सद्भक्तिपूर्वक द्रव्य रूप में भी गृहीत तथा कालान्तर में खण्डित हुआ द्रव्य-प्रत्याख्यान भाव-प्रत्याख्यान का कारण है ।। ८ ॥
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